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________________ 42] . [जैन विद्या और विज्ञान मन बौखला गया। अहं पर गहरी चोट लगी। देववाणी के प्रति वह नत था। वह बिना कुछ ननुनच किए तुलाधर वैश्य के पास आया। उसने देखा कि वैश्य तुलाधर एक दुकान में बैठा है। ग्राहक आ रहे हैं, जा रहे हैं। तुलाधर तराजू से तोलता जा रहा है। कोई साधना नहीं, कोई ध्यान नहीं, कोई स्वाध्याय नहीं, कोई तपस्या नहीं। वह केवल तराजू से तोल रहा है। इतना सा ध्यान दे रहा है कि दोनों पलड़े समान रहें, कोई भी झुका हुआ न हो। सांझ हुई। तुलाधर वैश्य दुकान बंद करने लगा। ऋषि पास में जाकर बोले – 'भाई! क्या तुम्हारा नाम तुलाधर है ? 'हाँ, जाजली! तुम आए हो! कहो – किसलिए आए हो ?' 'मैं तुम्हारी साधना जानने के लिए आया हूं। तुम्हारी साधना का मर्म क्या है ?' ऋषि ने पूछा। तुलाधर ने कहा - 'मेरी और कोई साधना नहीं है। मैं तो व्यापारी हूं। व्यापार करता हूं। वस्तुएं तोलता हूं किंतु एक बात का ध्यान रखता हूं कि दोनों पलड़े समान हों। दोनों पलड़े समान रखता हूं। इस बाहरी संतुलन ने मेरे भीतर भी संतुलन पैदा कर दिया। इस कथा के माध्यम से आचार्य महाप्रज्ञ कहते हैं कि जब भीतर संतुलन का वलय बन जाता है तो ध्यान अपने-आप सिद्ध हो जाता है और समाधि भी सिद्ध हो जाती है। मैत्री क्यों ? मैत्री के अर्थ को अधिक स्पष्ट करते हुए वे कहते हैं कि प्रश्न होता है - मैत्री क्यों ? इसका क्या अर्थ है ? क्या मैत्री का संबंध केवल दूसरों के लिए ही है ? समाधान की भाषा में लिखते हैं कि मैत्री का संबंध दूसरों का हित सोचना, हित चिंतन करना तो है ही पर इसका तात्पर्य यह कदापि नहीं है कि जो व्यक्ति दूसरों का हित नहीं करता है वह उनसे शत्रुता का भाव रखता है। मैत्री की दार्शनिक मीमांसा करते हुए लिखते हैं कि जो स्वयं का हित चिंतन करता है, अपने विषय में सोचता है, वह भी मैत्री है। जो व्यक्ति स्वयं का हित सोचता है, उससे दूसरो का हित स्वतः हो जाता है क्योंकि ऐसा व्यक्ति कभी बैर-विरोध के मार्ग पर नहीं जाता है। यह एक मनोवैज्ञानिक सत्य है। आत्म-तुला के सिद्धान्त को विकसित करते हुए इसे मनः चिकित्सा के माध्यम से समझाने का प्रयत्न किया है। मनः चिकित्सा आत्म-तुला के सिद्धान्त का मनोवैज्ञानिक विवेचन करते हुए कहते हैं कि व्यक्ति के मन में विधायक भाव के साथ निषेधात्मक भाव भी होते हैं।
SR No.002201
Book TitleJain Vidya aur Vigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahaveer Raj Gelada
PublisherJain Vishva Bharati Samsthan
Publication Year2005
Total Pages372
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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