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नया चिन्तन ]
( 3 ) नन्दी सूत्र में श्रुत के चौदह विकल्प बताए हैं।
अनक्षर-श्रुत
अक्षर-श्रु
असंज्ञी-श्रुत
संज्ञी-श्रुत
मिथ्या श्रुत
अनादि-श्रुत
अपर्यवसित-श्रुत
अगमिक-श्रुत
अनंग प्रविष्ठ श्रुत
आचार्य महाप्रज्ञ उपर्युक्त आगमों के वर्णन को इस दृष्टि से देखते हैं कि जैन दर्शन ने विरोधी युगलों का सह-अस्तित्व स्वीकार किया इसलिए वह सर्वग्राही दर्शन हो गया। वह किसी भी विचारधारा को असत्य की दृष्टि से • नहीं देखता किन्तु सापेक्षं सत्य की दृष्टि से देखता है। जितने विचार हैं वे सब पर्याय है और पर्याय निरपेक्ष सत्य नहीं हो सकता । निरपेक्ष- सत्य तो मूल द्रव्य हो सकता है। जैन दर्शन में जड़वादी विचार अमान्य नहीं है किन्तु साथ-साथ आत्मवादी विचार भी उतना ही मान्य है जितना कि जड़वादी विचार | दोनों विचारों का योग होने पर ही जैन दर्शन यथार्थ बनता है। जैन दर्शन को युगानुकूल भाषा में प्रेषित करने का श्रेय महाप्रज्ञजी को है ।
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सम्यक् श्रुत
आदि-श्रुत
सपर्यवसित-श्रुत
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11 गमिक - श्रुत
13 अंगं प्रविष्ठ - श्रुत
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(4) दशवैकालिक सूत्र में चार आवेगों (क्रोध, मान, माया, लोभ) की प्रतिपक्ष भावना का सुन्दर निरूपण हुआ है । यदि क्रोध के आवेग को मिटाना है, कम करना है तो उपशम के संस्कार को पुष्ट करना होगा। क्रोध का प्रतिपक्ष है. उपशम का संस्कार जितना पुष्ट होगा, क्रोध का आवेग उतना ही क्षीण होता चला जाएगा। मान के आवेग को नष्ट करना है तो मृदुता को पुष्ट करो। मृदुता और मैत्री में कोई अंतर नहीं है। मैत्री, मृदुता का ही प्रतिफलन है। जब मृदुता है तो किसी के साथ शत्रुता ही नहीं सकती। लोभ के आवेग को नष्ट करना है तो सन्तोष को विकसित करें, उसे पुष्ट करें ।
आवेगों को मिटाने के लिए प्रतिपक्ष के संस्कारों को पुष्ट करना है। जब तक प्रतिपक्ष का संस्कार पुष्ट नहीं होगा आवेगों का अनुभव नहीं किया जा सकता। साधना में प्रतिपक्ष भावना का बहुत बड़ा महत्त्व है।