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[ जैन विद्या और विज्ञान .
हैं इसलिए बंधन और मोक्ष में परस्पर प्रतिपक्ष भाव है। पुण्य के द्वारा जीव को सुख की अनुभूति होती है और पाप के द्वारा उसे दुख की अनुभूति होती है। इसलिए पुण्य और पाप में परस्पर प्रतिपक्ष भाव है। आश्रव पुदगलों को आकर्षित करता है और संवर उसका निरोध करता है, इसलिए आश्रव और संवर में परस्पर प्रतिपक्ष भाव है। दूसरे स्थानांग (सू. 9) में इनका प्रतिपक्ष युगल के रूप में उल्लेख मिलता है।
इसी प्रकार लोक और अलोक प्रतिपक्षी युगल हैं। आकाश लोक और अलोक, इन दो भागों में विभक्त है। जिस आकाश में धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, काल, पुद्गलास्तिकाय और जीवास्तिकाय ये पाँचों द्रव्य मिलते हैं, उसे लोक. कहा जाता है और जहाँ केवल आकाश ही होता है वह अलोक कहलाता है। इसी प्रकार धर्मास्तिकाय तथा अधर्मास्तिकाय भी प्रतिपक्षी युगल है। धर्मास्तिकाय का लक्षण गति और अधर्मास्तिकाय का लक्षण स्थिति (अगति) है।
___ यह जगत प्रतिपक्षी युगलों से भरा है या यों कहना चाहिए कि प्रतिपक्षी युगलों के अस्तित्व के कारण ही जगत का स्थायित्व है।
(2) स्थानांग (ठाणे) सूत्र के दूसरे स्थान का प्रथम पद, द्विपदावतार : के नाम से हैं। हम पाते हैं कि इसमें भी प्रतिपक्षी युगलों का विस्तार से वर्णन निम्न प्रकार से हुआ है।
लोक में जो कुछ भी है द्विपदावतार (दो-दो पदों में अवतरित) होता है:
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| 1. जीव और अजीव | 2 | त्रस और स्थावर | 3 |सयोनिक और अयोनिक | 4 | आयु सहित और आयु रहित 5 इन्द्रिय सहित और इन्द्रिय| 6 | वेद सहित और वेद रहित
रहित रूप सहित और रूप रहित| 8 |पुद्गल सहित और पुद्गल रहित संसार समापन्न (संसारी), | 10 | शाश्वत और अशाश्वत
असंसार समापन्नक (सिद) 11 |आकाश और नोआकाश | 12 |धर्म और अधर्म | 13 |बन्ध और मोक्ष
14 | पुण्य और पाप | 15 आश्रव और संवर 16 | वेदना और निर्जरा