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नया चिन्तन ]
प्रत्येक समस्या का समाधान हो सकता है। विरोध प्रकृति में है। विरोध का अर्थ है भिन्न दिशा में होना । प्रतिपक्ष होना, यह हमारे वस्तु जगत की प्रकृति है । यह शारीरिक संरचना और सृष्टि संरचना की प्रकृति है ।
महाप्रज्ञ-दर्शन में डॉ. दयानन्द भार्गव ने प्रतिपक्ष के सिद्धान्त को द्वन्दों की दुनिया के शीर्षक के अन्तर्गत प्रस्तुत किया है। वे लिखते हैं कि - पदार्थ का नाम और रूप उस पदार्थ को दूसरे पदार्थ से भिन्न बनाता है। भेदा आधार है- विषमता। यह विषमता ही द्वैत का आधार है । अंधकार है, इसीलिए प्रकाश का नाम प्रकाश है। प्रकाश और अंधकार को साथ-साथ रहना होता है । यह द्वन्द सब स्तरों पर काम कर रहा है। व्यक्ति के स्तर पर प्राण और अप्राण के बीच द्वन्द है । आचार के क्षेत्र में पाप और पुण्य का द्वन्द है । दर्शन के क्षेत्र में ज्ञान और कर्म का विरोध प्रसिद्व है। इसी प्रकार प्रवृति - निवृति, बिम्ब-प्रतिबिम्ब, दुःख-सुख, यथाअवगत - तथागत, भेद- अभेद, व्यक्त-अव्यक्त, निश्चयव्यवहार, पूर्णता - अपूर्णता, जन्म-मृत्यु, परिस्थिति- मनःस्थिति आदि द्वन्द के कारण हैं। हम प्रकृति के नियम के विरुद्ध नहीं जा सकते। विश्व की व्यवस्था ही ऐसी है कि उसके मूल में विरोधी युगल एक साथ रहते हैं ।
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महाप्रज्ञ का सह-प्रतिपक्ष का सिद्धान्त, जैन आगम साहित्य से प्रसूत हुआ है। हम पाते हैं कि स्थानांग ( ठाणं) सूत्र के प्रथम तथा द्वितीय अध्ययन प्रतिपक्षी युगलों का विस्तार से वर्णन हुआ है जो निम्न प्रकार है
(1) स्थानांग आगम का प्रथम अध्ययन का प्रथम पद अस्तित्ववाद से संबधित है। इसके 5 से 14 तक के सूत्र अवलोकनीय हैं।
5 लोक एक है।
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धर्म (धर्मास्तिकाय) एक है। 8
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9 बन्ध एक है।
11 पुण्य एक है।
13 | आश्रव एक है।
अलोक एक है।
अधर्म (अधर्मास्तिकाय) एक है ।
मोक्ष एक है ।
पाप एक है।
14 संवर एक है ।
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इसके संबंध में टिप्पणी करते हुए आचार्य महाप्रज्ञ लिखते हैं कि संख्यांकित छः सूत्र (9 - 14 ) में नव तत्त्वों मे से परस्पर प्रतिपक्षी छह तत्त्वों का निर्देश किया गया है।
बन्धन के द्वारा आत्मा के चैतन्य आदि गुण प्रतिबद्ध होते हैं । मोक्ष आत्मा की उस अवस्था का नाम है जिसमें आत्मा के चैतन्य आदि गुण पूर्ण हो जाते