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[ जैन विद्या और विज्ञान
दूसरा अप्रभावी । जो प्रभावी होता है वह व्यक्त हो जाता है और जो अप्रभावी होता है, वह पर्दे के पीछे रह जाता है। कर्मवाद की भी यही प्रकृति है। हमारे साथ जितने कर्मों का संबंध है, उन सभी कर्मों की विरोधी प्रकृतियां बनी रहती हैं। जैसे सुखवेदनीय कर्म है तो दुःखवेदनीय कर्म भी है। इसी प्रकार शुभ नामकर्मअशुभ नामकर्म, उच्च गोत्र कर्म-नीच गोत्र कर्म, शुभ आयुष्यअशुभ आयुष्य के युगल कर्म रूप में विद्यमान हैं। दोनों विरोधी प्रकृतियां हैं लेकिन एक प्रकृति व्यक्त होती है तब दूसरी अव्यक्त हो जाती है।
हम पाते हैं कि आचार्य महाप्रज्ञ ने 'सह-प्रतिपक्ष के सिद्धान्त' के प्रतिपादन एक महत्त्वपूर्ण सीमा बांधी है जिसे हम लिमिटेशन (limitation ) कहते हैं। वह यह है कि "पक्ष प्रतिपक्ष अथवा विरोधी युगल परस्पर में विरोधी होते हुए भी सर्वथा विरोधी नहीं है।" इसी कारण उनमें समन्वय है। इस जगत में सर्वथा सदृश या सर्वथा विसदृश कुछ भी नहीं है । सर्वथा अस्ति या सर्वथा नास्ति कुछ भी नहीं है। सादृश्य और विसादृश्य समन्वित हैं । अस्तित्व और नास्तित्व समन्वित है । अत्यन्त विरोध में भी साम्यता और अत्यन्त साम्यता में भी विरोध प्रकट होता है। महाप्रज्ञजी की इस सिद्धान्त के प्रति प्रतिबद्धता है, उसे पाठकों के लिए आगे के बिंदुओं में प्रेषित किया गया है।
विरोधी युगल
इस दुनिया में एक भी शब्द ऐसा नहीं है जिसका प्रतिपक्ष शब्द न हो । जिसका अस्तित्व होता है, उसका प्रतिपक्ष भी होता है। प्रत्येक वस्तु का प्रतिपक्ष है। जिसका प्रतिपक्ष न हो वह सत् नहीं होता, उसका अस्तित्व ही नहीं होता। जिस शब्द का प्रतिपक्ष नहीं है उसका तो अर्थ ही नहीं हो सकता । कल्पना करें कि यदि दुनिया में अंधकार मिट जायेगा तो प्रकाश का अर्थ - भी समाप्त हो जाएगा। प्रकाश का अर्थ हम तभी समझ सकते हैं जबकि अंधकार का अस्तित्व है। यह संसार विरोधी युगलों का संसार है। सारे जोड़े युगल हैं और वे भी विरोधी युगल । सब कुछ द्वन्द है । द्वन्द के दो अर्थ होते हैं । एक अर्थ है युगल और दूसरा अर्थ है लड़ाई, संघर्ष, युद्ध । जो युगल होगा वह विरोधी ही होगा। समान जाति का युगल नहीं होता । स्त्रीपुरुष, नर-मादा, नित्य- अनित्य, शाश्वत - अशाश्वत, अंधकार - प्रकाश, सर्दी-गर्मी, आदि आदि युगल हैं। हम इस सत्य को मानकर चलें कि इस दुनिया में विरोध रहेगा, भिन्नता रहेगी, प्रतिपक्ष रहेगा। इसे कोई मिटा नहीं सकता। इसमें हमें नए मार्ग की खोज करनी होगी। वह मार्ग होगा सह-अस्तित्व का, समन्वय का । जब आदमी समन्वय की चेतना से समाधान खोजता है, तो