________________
32]
[ जैन विद्या और विज्ञान
में प्रस्तुत किया है। वे लिखती हैं कि अनेक स्थलों पर विरोध दिखाई देता है, पर अनेकान्त दृष्टि से वह विरोध नहीं है, यथा -
दो का नाम अभय है भाई/भय का अर्थ अकेला है। द्वन्द सत्य द्वंदात्मक जग में/ गुरु के आगे चेला है।
दो सापेक्षता का प्रतीक है, एक निरपेक्षता का। जहाँ सापेक्षता है वहाँ सत्य है और जहाँ सत्य है वहाँ अभय। एकांत निरपेक्ष होता है और उसे अपने प्रतिपक्षी एकांत से सदा भय बना रहता है। सुंदोपसुंद न्याय से एकांत की पराजय हो जाती है। गुरु के आगे चेला कहने का तात्पर्य है, निश्चय नय के गुरु स्थानीय होने पर भी जगत का व्यवहार, व्यवहार नय के बिना नहीं चल सकता।
साध्वी श्रुतयशा ने अन्य उद्धरण प्रस्तुत किए हैं - 1. "जलधि शांत है वही तरंगित', 2. जैसे-जैसे निकट-निकट प्रभु/वैसे-वैसे लगते दूर', 3. 'मरुदेवा मर अमर हो गई', 4. दृश्य हो गया है सहसा दिनकर/तीव्र रश्मि से बना 'अदृश्य'
आदि। अनेक विरोधाभासी अलंकारों का सुंदर निदर्शन ऋषभायण में मिलता है। अनेकान्त दृष्टि से यह अलंकार शब्द और अर्थ की अनेक अर्थ-छवियों का अद्भुत सृजन करने में सक्षम हैं। साध्वीश्री के उपर्युक्त लेखन के अतिरिक्त आचार्य महाप्रज्ञ लिखते हैं कि अनेकान्त ने सूक्ष्म और स्थूल दोनों नियमों की व्याख्या की और दो कोण हमारे सामने प्रस्तुत किए। एक कोण - निश्चय नय और दूसरा कोण है - व्यवहार नय। यदि सूक्ष्म सत्यों को जानना हो तो निश्चय नय का सहारा लें और स्थूल नियमों को जानना हो तो व्यवहार नय का सहारा लें। जब ये दोनों सापेक्ष होते हैं, समन्वित होते हैं, तब हम सचाई तक पहुँच जाते हैं कि भेद और अभेद भिन्न भिन्न नहीं किन्तु, समन्वित रहते हैं।
हम जानते हैं कि जैन दर्शन में पदार्थ को पुदगल कहा है। पुदगल वर्ण, गंध, रस, स्पर्श वाला है। आठ स्पर्श, जो परस्पर में संयोग-वियोग के कारण हैं वे चार विरोधी-युगल रूप हैं। स्निग्ध-रुक्ष, हल्का-भारी, शीत-ऊष्ण, मृदु-कर्कश। समूची पौगालिक सृष्टि का निर्माण इन विरोधी-युगल स्पर्शों से होता है। जितने भी स्थूल पुदगल पदार्थ है उसमें ये आठों स्पर्श होते हैं, जो स्कन्ध को स्थायित्व प्रदान करते हैं। यह कितना रहस्यमय है कि वस्तु के निर्माण में विरोधी-युगल स्पर्शों का होना आवश्यक है।