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________________ नया चिन्तन ] [31 व्यक्तिगत चेतना और सामुदायिक चेतना व्यक्तिगत चेतना और सामुदायिक चेतना, दोनों का मूल्य हैं। व्यक्तिगत चेतना स्वाभाविक हैं, व्यक्ति में अपनी प्रेरणा है, अपना स्वार्थ है। सामुदायिक चेतना का अभिप्राय है कि व्यक्तिगत चेतना उसमें विलीन हो जाय। परिवार में, समाज में, सामुदायिक चेतना का महत्त्व है। वे लिखते हैं कि व्यक्ति को समुदाय से भिन्न करने में कठिनाई का अनुभव कर रहा हूँ। इसलिए कि जल राशि से विलग पड़ा कण अपना अस्तित्व नहीं रख पाता। समुदाय को व्यक्ति से भिन्न कहने में भी. सरलता का अनुभव नहीं हो रहा है इसलिए कि जलकणों से भिन्न जलराशि की अपनी कोई अस्मिता नहीं है। व्यक्ति और समुदाय दोनों को एक कहने में भी समस्या का समाधान नहीं देख रहा हूँ। इसलिए कि जलकण पर जलपोत नहीं तैरते और जलराशि को कभी सिर पर नहीं उठाया जा सकता। सरल मार्ग यह है कि जल-कण और जलराशि में रहे अभेद और भेद दोनों को एक साथ देखू। तात्पर्य की भाषा में विरोधी प्रतीत होने वाले धर्मों का एक साथ होना समन्वय है। वस्तु जगत में पूर्ण सामंजस्य और सह-अस्तित्व है। विरोध की कल्पना हमारी बुद्धि ने की है। उत्पाद और विनाश, जन्म और मृत्यु, शाश्वत और अशाश्वतये सब साथ-साथ चलते हैं। मैटर एण्टी -मैटर विज्ञान की सीमा वस्तु (ऑब्जेक्ट) है। दर्शन चेतना (सब्जेक्ट) प्रधान है। विज्ञान को चेतना में घटित घटना मान्य नहीं है और दर्शन का पदार्थ में घटित होने वाली घटनाओं से संबंध नहीं है। इसीलिए इन दोनों की पारस्परिक पूरकता का विकास होना चाहिए। इससे वैश्विक समस्याओं के समाधान में बहुत बड़ा योग मिल सकता है। आज का विज्ञान कहता है यूनिवर्स हैं तो एन्टी-यूनिवर्स भी है। कण है तो प्रतिकण भी है। अणु है तो प्रति-अणु भी है। पदार्थ है तो प्रति-पदार्थ भी है। जगत है तो प्रति-जगत भी हैं। मैटर है तो एण्टी-मैटर भी है। यदि एण्टी-मैटर न हों तो मेटर का कोई अस्तित्व नहीं हो सकता। यदि प्रति-अणु न हो तो अणु का और प्रतिजगत न हो तो जगत का कोई अस्तित्व नहीं हो सकता। - ऋषभायण में विरोधाभासी अलंकारों का प्रयोग ऋषभायण महाप्रज्ञजी द्वारा प्रणीत एक श्रेष्ठ महाकाव्य है। महाप्रज्ञजी ने 'सह-प्रतिपक्ष के सिद्धान्त' का इस महाकाव्य में अनेक स्थलों पर प्रयोग किया है। साध्वी श्रुतयशा ने इसे ऋषभायण में विरोधाभास अलंकार के रूप
SR No.002201
Book TitleJain Vidya aur Vigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahaveer Raj Gelada
PublisherJain Vishva Bharati Samsthan
Publication Year2005
Total Pages372
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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