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[ जैन विद्या और विज्ञान
जगत दो भागों में विभक्त हैं - (i) पदार्थ का जगत और आत्मा का जगत . (ii) स्थूल जगत और सूक्ष्म जगत (iii) मूर्त जगत और अमूर्त जगत
इन सबके बीच संतुलन बनाना होगा। स्थूल और सूक्ष्म, पदार्थ और आत्मा, मूर्त और अमूर्त के संतुलन से ही समस्याएं समाहित होंगी। हमें पदार्थ से कुछ लेना-देना नहीं है - यह सोचना सही नहीं है। पदार्थ के बिना व्यक्ति का काम नहीं चलता, जीवन की यात्रा नहीं चलती। इसी तरह यदि हम केवल पदार्थ में उलझे रहे तो समस्याएं उलझती ही चली जाएंगी। समस्या को सुलझाने के लिए प्रतिपक्ष को खड़ा करना आवश्यक है। प्रतिपक्ष बिना, दो विरोधी युगलों के बिना विश्व चल नहीं सकता ।
लोकतन्त्र में पक्ष-प्रतिपक्ष
लोकतन्त्र की कल्पना करने वालों ने बहुत बड़ी सचाई को खोजा। लोकतन्त्र में पक्ष के साथ प्रतिपक्ष का होना जरूरी है अगर विरोधी दल नहीं है तो लोकतन्त्र ठीक नहीं चल सकता। अनेकान्त का सिद्धान्त हैविरोधी युगल का होना अनिवार्य है उसके बिना सम्यक् व्यवस्था संपादित नहीं हो सकती। धर्मास्तिकाय नहीं है तो अधर्मास्तिकाय नहीं हो सकती। जैन तत्त्व ज्ञान के अनुसार धर्मास्तिकाय जो गति सहायक तत्त्व हैं को अपने अस्तित्व के लिए अधर्मास्तिकाय जो स्थिति सहायक तत्त्व हैं को स्वीकार करना जरूरी है। अनेकान्त का यह वैज्ञानिक सिद्धान्त है। जो व्यवहार में लोकतन्त्र में आया पर क्रियान्वित नहीं हो सका। पूरकता के स्थान पर झूठा विरोध करना, एक विडम्बना है। अनेकान्तं की सार्थक अभिव्यक्ति है - पदार्थ और आत्मा की स्वीकृति । आचार्य महाप्रज्ञ की भाषा में असमाज है तो समाज का होना जरूरी है। भोग है तो त्याग का होना जरूरी है। पदार्थ है तो अपदार्थ का होना जरूरी है।
पुरुषार्थ और नियति
जीवन और जगत के विकास में पुरुषार्थ और नियति दोनों का योग रहता है। दोनों की अपनी सीमाएं है। नियति को छोड़कर केवल पुरुषार्थ के आधार पर जीवन की समग्रता से व्याख्या नहीं की जा सकती तथा वह नियति अकिंचित्कर बन जाती है जिसके साथ पुरुषार्थ जुड़ा हुआ नहीं होता। हम नियति के पुरुषार्थ को जाने और पुरुषार्थ की नियति को जाने।