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महाप्रज्ञ का सह-प्रतिपक्ष का सिद्धान्त
(Mahaprajna's Principle of Opposites)
आचार्य महाप्रज्ञ जैन दर्शन के अनेकान्त सिद्धान्त के सफल व्याख्याता हैं। वे इस सत्य के पक्षधर है कि अस्तित्व में पक्ष का प्रतिपक्ष अर्थात् विरोधी युगल का होना आवश्यक है। प्रतिपक्ष के बिना, दो विरोधी युगलों के बिना विश्व चल नहीं सकता। विज्ञान पढ़ने वाला जानता है कि कोरा 'मेटर' इस विश्व में नहीं हैं, अगर 'मेटर' है तो “ऐंटीमेटर' भी है। प्रतिपक्ष के बिना दुनिया का काम नहीं चलता। उनके अनुसार समूची प्रकृति में, समूची व्यवस्था में विरोधी युगलों का अस्तित्व है। विरोधी युगल या द्वंदात्मक जीवन के आध पार पर आचार्य महाप्रज्ञ ने सह-प्रतिपक्ष के सिद्धान्त को प्रतिष्ठित किया है। उन्होंने अनेक स्तरों पर अनेक स्थितियों में इस तथ्य का प्रतिपादन किया है तथा शरीर शास्त्र और मनोविज्ञान में अनुप्रयोग किए हैं अतः इस अस्तित्वगत सत्य को "महाप्रज्ञ का सह-प्रतिपक्ष का सिद्धान्त" कहना अधिक समीचीन प्रतीत होता है।
. आचार्य महाप्रज्ञ के अनुसार किसी भी सिद्धान्त को हम यदि सत्य के • साथ जोड़ते हैं, तो कोई द्वन्द नहीं होता। उसी सिद्धान्त को यदि हम विस्तार के साथ जोड़ते हैं तो समस्या पैदा होती है। लेकिन विस्तार के बिना सिद्धान्त का प्रभावी स्वरूप प्रकट नहीं होता। अतः हम सह-प्रतिपक्ष के सिद्धान्त का विस्तार से यहां अध्ययन करेंगे। सह-प्रतिपक्ष सिद्धान्त की अवधारणाएं - .प्रतिपक्ष का अर्थ है भिन्न दिशा में होना। » प्रतिपक्ष का होना, वस्तु जगत की प्रकृति है। यह शारीरिक संरचना
और सृष्टि संरचना की प्रकृति है। > पक्ष-प्रतिपक्ष परस्पर में विरोधी होते हुए भी सर्वथा विरोधी नहीं है। > प्रकृति में अत्यन्त प्रतिपक्ष (विरोध) में भी पक्ष (साम्यता) और अत्यन्त पक्ष (साम्यता) में भी प्रतिपक्ष (विरोध) प्रकट होता है। यह सहअस्तित्व
का आधार है। आचार्य महाप्रज्ञ के विचारों का कुछ संकलन पाठकों के लिए प्रस्तुत है जो सह-प्रतिपक्ष सिद्धान्त की पुष्टि करता है।