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________________ जैन विद्या और विज्ञान का सामान्य परिचय ] [21 पाठकगण को लौकिक और लोकोत्तर धर्म की भेदरेखा को समझना चाहिए क्योंकि कभी कभी भावावेश में या अज्ञानतावश लौकिक कर्तव्यों में आवश्यक हिंसा को अहिंसा बता दिया जाता है। हमें अहिंसा के मर्म और अहिंसा-हिंसा के भेद को समझना चाहिए। हिंसा-अहिंसा की परिभाषा न समयानुकूल है और न परिस्थितिजन्य है। यह विस्मृत नहीं होना चाहिए कि हिंसा सदैव हिंसा है और अहिंसा सदैव अहिंसा है। इस सम्बन्ध में आचार्य महाप्रज्ञ कहते हैं कि धर्म और कर्तव्य एक कोटि में अवस्थित नहीं है। धर्म का निर्णय आत्मा की शुद्धि के आधार पर होता है और कर्तव्य का निर्णय समाज की उपयोगिता के आधार पर होता है। धर्म की भूमिका में हिंसा और अहिंसा पर विचार किया जाता है। कर्तव्य की भूमिका में हिंसा और अहिंसा का विचार अनिवार्य नहीं है। अहिंसा और अपरिग्रह को जीवन में प्रभावी रूप से आचरण में लाने के लिए आचार्य तुलसी ने अणुव्रत आन्दोलन का सूत्रपात किया। उन्होंने कहा कि जीवन में सम्यक विचार आने से ही सम्यक् आचरण सम्भव है। प्रत्येक अणुव्रती को प्रतिज्ञा लेनी होती है कि वह अपने सामाजिक कर्तव्यों का पालन करता हुआ, अपार वस्तुओं का संग्रह नहीं करेगा न किसी राष्ट्रद्रोह के कार्यों में भाग लेगा। आचार्य तुलसी ने अणुव्रत के अन्तर्गत उन नियमों का विधान किया है जो एक सचरित्र नागरिक का निर्माण कर सके। आज यह आन्दोलन, आचार्य महाप्रज्ञ के अनुशासन में अन्य अहिंसात्मक आन्दोलनों के साथ, समवाय कर, मानव-कल्याण की राह को प्रशस्त कर रहा है। जैन. दर्शन - दर्शन जगत में जैन दर्शन का अनेकान्त सिद्धान्त विख्यात है। अनेकान्त का अभिप्राय है कि सत्य को विभिन्न दृष्टिकोणों से जानना। एक दष्टिकोण से जानकर, समस्त को जान लेने का आग्रह नहीं करना। एक दृष्टि से जाना हुआ सत्य, सत्याशं ही होता है। वस्तु अनेक गुणवाली है अतः उसे समग्रता से जानने के लिए सभी दृष्टिओं से जानना आवश्यक है। .पाठकगण के लिए अनेकांत का एक उदाहरण प्रेषित है। स्थानांग सूत्र में जीव को समझने के विभिन्न विकल्प बताए हैं - 1. प्रत्येक शरीर की दृष्टि से जीव एक है। 2. संसारी और मुक्त इस अपेक्षा से जीव दो प्रकार के हैं अथवा ज्ञान . चेतना और दर्शन चेतना की दृष्टि से वह द्विगुणात्मक है।
SR No.002201
Book TitleJain Vidya aur Vigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahaveer Raj Gelada
PublisherJain Vishva Bharati Samsthan
Publication Year2005
Total Pages372
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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