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[ जैन विद्या और विज्ञान,
ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह। इन सिद्धान्तों का वे पूर्णता से पालन करते हैं लेकिन कभी कहीं अतिचार हो जाता है तो उसका प्रायश्चित करते हैं। वे अपने पूज्य अर्हतों और सिद्धों का गुणगान करते हैं, स्तुति करते हैं, पूजा करते हैं, जप करते हैं और मंदिरों में प्रार्थना करते हैं।
जैन धर्म में ईश्वरीय-सत्ता स्वीकार्य नहीं है जो जीव और प्रकृति की स्रष्टा हो तथा नियंता हो। यह माना गया है कि जगत अपने नियमों से चलता है। जैन समाज में तप की अत्यन्त महिमा है। साधु और श्रावक समान रूप से तपस्या करते हैं। तप, मन, वाणी और शरीर के संतुलन में सहयोगी हैं। ध्यान की परम्परा जैन धर्म में पुनः विकसित हो रही है। तप और ध्यान दोनों दृढ़ संकल्प से होते हैं और इसके कारण ही कर्म प्रकम्पित होते हैं और निर्जरा होती है। साधना के विविध पथों से गुजरते हए श्रमण-श्रमणी, सम्यक दर्शन, सम्यक ज्ञान, सम्यक चारित्र को उपलब्ध होते हैं। अतः मोक्ष पाने हेतु की गई समस्त अध्यात्म साधना, लोकोत्तर धर्म कही गई है। चीनी यात्री हवानचांग जो दो हजार वर्ष पूर्व भारत में आया था उसने जैन मुनियों का वर्णन किया हैं और चीनी भाषा में उन्हें लीही कहा है। वह लिखता है कि "जैन श्रमण, ब्राह्मणों और अन्य साधुओं से भिन्न जीवन जीते हैं। वे नग्न रहते हैं। वे शरीर के बाल स्वयं उखाड़ते हैं। उनके शरीर की चमड़ी फटी हुई हैं और उनके पैरों में बिवाइयां हैं, जो इस प्रकार फटी हुई हैं जैसे नदी के किनारे के पेड़ों के तने फटे हों। जैन परम्परा में जिनकल्पी श्रमण-साधुओं की साधना अत्यन्त कठोर बताई गई है जो कष्ट को आंमत्रित कर, कर्म-बंध से मुक्त होने की साधना करते हैं। (ii) अगार धर्म
जैन धर्म में श्रमण, श्रमणी के अतिरिक्त श्रावक और श्राविकाओं को मिलाकर चार तीर्थ कहे हैं। साधु, पांच महाव्रत का पालन करते हैं। श्रावक, पांच अणुव्रत का पालन करते हैं। महाव्रत और अणुव्रत में यही अंतर है कि अणुव्रत में व्रतों की सीमा होती है। इस सीमाकरण में बारह व्रतों का भी उल्लेख हुआ है। इनका पालन करना आध्यात्मिक गृहस्थ धर्म है। इस आध्यात्मिक धर्म के अन्तर्गत वे संवर और निर्जरा का पालन करते है। वे संकल्प पूर्वक त्रस जीवों की हिंसा नहीं करते और जीवन में अप्रामाणिक नहीं रहते हैं। इसे अगार धर्म कहा गया है। गृहस्थ जीवन में श्रावक श्राविकाएं समाजगत, परिवारगत, राष्ट्रगत कर्तव्यों का पालन करते हैं जिसमें आवश्यक हिंसा होती है। श्रावक उस हिंसा से मुक्त नहीं हो सकता। इन कर्तव्यों को लौकिक धर्म कहा गया है।