________________
जैन विद्या और विज्ञान का सामान्य परिचय]
[19
बढ़ाने की ओर ध्यान नहीं दिया। समाज-धर्म की अपेक्षा मोक्ष-धर्म को अधिक महत्त्व दिया। जैन धर्म का अहिंसा का सिद्धान्त आज भी अत्यन्त लोकप्रिय है और समाजगत तथा राष्ट्रगत विद्वेष को दूर करने में सक्षम है।
जैनों का विश्वास है कि इस सृष्टि में दो ही मूल तत्त्व हैं - » जीव > अजीव
इस सिद्धान्त की सीमा यह है कि जीव कभी अजीव नहीं हो सकता और अजीव कभी जीव नहीं हो सकता।
जीव में चेतना का गुण है। उपयोग है। जीव दो प्रकार के हैं - सिद्ध और संसारी। संसारी आत्माएं सूक्ष्म कर्म पुद्गल से आवृत्त हैं। यही जीव के संसार-भ्रमण का कारण है। आत्मा और कर्म के अनादि सम्बन्ध के बारे में यह सहज प्रश्न होता है कि अभौतिक आत्मा तथा भौतिक. कर्म की गुणों में असमानता होने पर भी ये अनादि काल से साथ-साथ कैसे रहते हैं? कोई न कोई तो समान गुण होना चाहिए। लेखक की दृष्टि में 'अगुरुलघु' का गुण दोनों में समान है, जो इन्हें साथ-साथ रहने की क्षमता प्रदान करता है। जैन दृष्टि से इस लोक के सभी मौलिक द्रव्यों में अगुरुलघु गुण होता है। अकेले पुदगल की विशेषता हैं कि वह स्थूल और सूक्ष्म दो प्रकार का है। स्थूल पुद्गल में गुरुलघु का गुण होता है लेकिन सूक्ष्म पुद्गलों में गुरुलघु का गुण नहीं होता है। कर्म, सूक्ष्म पुद्गल है तथा अगुरुलघु है। अतः यह मानना उचित प्रतीत होता है कि आत्मा और कर्म में अगुरुलघु गुण की समानता है। जिससे ये अनादिकाल से साथ रह रहे हैं।
जैनों की मान्यता है कि जीव का सुख-दुःख, जीव से बंधे कर्मों के कारण है। जैन आत्मवादी दर्शन है और इसका लक्ष्य यही है कि धर्म के आचरण द्वारा जीव कर्म-मुक्त हो सके। आचरण की अपेक्षा कर्म मुक्ति के साधन के रूप में धर्म को दो भागों में विभक्त किया गया है... (1) अनगार धर्म (मुनि का चारित्र धर्म)
(2) अगार धर्म (गृहस्थ का चारित्र धर्म) () अनगार धर्म
. जैन श्रमण-श्रमणी जिन्होंने सांसारिक जीवन से विरक्ति ली है, वैराग्य भाव से परिवार-मोह छोड़ा है, वे नियमों की कठोरता से पालना करते हैं। उनके लिए पांच महाव्रतों का विधान है। वे महाव्रत हैं - अहिंसा, सत्य, अचौर्य,