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[ जैन विद्या और विज्ञान -
अस्तित्व को अनेकान्त कहा। जैन संस्कृति ने दया और मैत्री को महत्त्व देकर शांति के जीवन को प्रशस्त किया। यह अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है कि जैन समाज की पहचान शाकाहारी समाज के रूप में प्रतिष्ठित है। जैनों ने सदैव यह ध्यान रखा है कि वे किसी भी प्रकार से प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से हिंसात्मक कार्यों में भाग न ले। जैन नीति शास्त्र के अनुसार जैन गृहस्थ पांच अणुव्रतों का पालन अपनी क्षमतानुसार करते हैं - वे अणुव्रत हैं - अहिंसा, सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह। रात्रि भोजन न करने का संकल्प भी लेते हैं। लम्बे समय से चली आ रही जैन श्रमण-श्रमणी की जीवित परम्परा ने तथा वीतरागियों की संग्रहित वाणी ने लोक कल्याण के कार्यों में सहयोग किया है। यह सचाई है कि जैनों की कोई राजनैतिक संस्था नहीं. है क्योंकि वे धर्म को राजनीति से पृथक रखना चाहते हैं। धर्म पालन में जैनों की भावना रहती है कि वे समाज-सेवा करे तथा मोक्ष प्राप्ति के पथ की ओर अग्रसर हों। जैन धर्म किसी अन्य धर्म व धर्मावलम्बी का तिरस्कार नहीं करता और न ही किसी धार्मिक-समाज को समूह रूप से जैन धर्म में परिवर्तित करने का कार्यक्रम बनाता है। जैन धर्म में व्यक्ति के हृदय परिवर्तन को महत्त्व दिया गया है। जैनों का उद्देश्य स्पष्ट है कि वे इन्द्रियगत वासना को जीतने के लिए साधना करते हैं। अन्य को जीतने का कोई भी प्रयत्न, जैन धर्म को मान्य नहीं है। यह माना गया है कि आत्मा का ज्ञान परिपूर्ण नहीं होता, जब तक अचेतन को भी नहीं जान लिया जाता। इसलिए आत्मां (चेतन) और अनात्मा (अचेतन) दोनों की समग्रता के ज्ञान की साधना की जाती है।
जैन शास्त्रीय ज्ञान को तीन प्रमुख खण्डों में बांटा जा सकता है। » धर्म » दर्शन
» विज्ञान जैन धर्म
धर्म क्या है ? इस जगत में धर्म की कोई भी सर्वमान्य परिभाषा नहीं है। काल के अन्तराल में अनेक परिभाषाएं उदित हुई हैं लेकिन वे ही धार्मिक मान्यताएं स्थिर हो सकी जिन्होंने आचरण की शुद्धता पर जोर दिया। जैन धर्म की यह विशेषता रही कि इसमें अहिंसा और अपरिग्रह को सर्वोपरि महत्त्व दिया गया है, जिससे मैत्री और साम्य भाव विकसित हुए हैं। आज जैन धर्म का नाम जगत के उन धर्मो में आता है जो प्रभावी रूप से पुनः विकास कर रहे है। यह सही है कि जैनों की संख्या कम है क्योंकि इन्होंने संख्या