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[ जैन विद्या और विज्ञान -
की जा सकती है। दर्शन और विज्ञान की सम्बन्धित शाखाओं का तुलनात्मक अध्ययन बहुत अपेक्षित है। ऐसा होने पर दर्शन के अनेक नए आयाम उद्घाटित हो सकते हैं।" सूक्ष्म पर्यायों की खोज
आचार्य महाप्रज्ञ दूरदर्शी हैं। जब वे एक धर्मगुरु के रूप में लिखते हैं कि - "मैं स्वीकार करता हूँ कि विज्ञान ने धर्म का जितना उपकार किया है उतना संभवत: किसी ने नहीं किया। यदि आज विज्ञान सूक्ष्म पर्यायों की खोज में नहीं जाता, सूक्ष्म सत्यों की घोषणाएं नहीं करता तो ये विभिन्न दार्शनिक और अधिक संघर्ष करने लग जाते। अभी दार्शनिकों की तीसरी आँख खुली नहीं है। वे प्रयोग की प्रक्रिया को भूल बैठे हैं। आज का वैज्ञानिक प्रतिदिन नए-नए आविष्कार करता चला आ रहा है। वह प्रयोग में संलग्न है। विज्ञान ने हमारे समक्ष अनेक सूक्ष्म सत्य प्रस्तुत किए हैं। उसने अनेक अव्यक्त पर्यायों को व्यक्त किया है। इस कारण से आज धर्म के प्रति जितना सम्यक् दृष्टिकोण है, वह 500-1000 वर्ष पहले नहीं हो सकता था। आज सूक्ष्म सत्य के प्रति जितनी जिज्ञासा है, उतनी पहले नहीं थी। विज्ञान अतीन्द्रिय ज्ञान की सीमा के आस-पास पहुंच रहा है। वैज्ञानिकों ने कोई साधना नहीं की, अध्यात्म का गहरा अभ्यास नहीं किया, अतीन्द्रिय चेतना को जगाने का प्रयत्न नहीं किया, किन्तु इतने सूक्ष्म उपकरणों का निर्माण किया है कि जिनके माध्यम से अतीन्द्रिय सत्य खोजे जा सकते हैं। आज का विज्ञान अतीन्द्रिय तथ्यों को जानने-देखने और प्रतिपादन करने में सक्षम है।" गहरी प्रतिबद्धता
अध्यात्म और विज्ञान की एकता के प्रति गहरी प्रतिबद्धता प्रकट करते हुए वे लिखते हैं कि - "मैं नहीं मानता कि अध्यात्म और विज्ञान दो हैं। मेरी दृष्टि में ये दो नहीं है, मिन्न नहीं है। सत्य की खोज़ चाहे हम अतीन्द्रिय चेतना के माध्यम से करें, चाहे वैज्ञानिक उपकरणों के द्वारा करें, सूक्ष्म की खोज विज्ञान को भी अभिष्ट है और अध्यात्म को भी यह इष्ट है। यह अंतर हो सकता है कि विज्ञान के सामने केवल भौतिक जगत रहा। भौतिक विज्ञान के संदर्भ में इसका विकास हुआ अध्यात्म के आचार्यों के सामने मुख्यतः आत्मा और चैतन्य रहे। उन्होंने इसी पर अधिक खोजें की किन्तु कोई भी भौतिक विज्ञानी चेतना से हटकर कोई खोज नहीं कर सकता। केवल उपकरणों के द्वारा कोई सार्थक खोज नहीं हो सकती और कोई भी अध्यात्म