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________________ प्ररोचना] [5 विधायक दृष्टिकोण आचार्य महाप्रज्ञ का अध्यात्म और विज्ञान के समन्वय के संबंध में विधायक दृष्टिकोण रहा है। विज्ञान की उपलब्धियों को उन्होंने स्वीकार करते हुए कहा है कि विज्ञान सूक्ष्म तथ्यों का अन्वेषण कर रहा है, जो प्रायोगिक भी है अतः इससे अगर जैन दर्शन के सूक्ष्म सत्य अधिक स्पष्ट हो रहे हों तो दर्शन की प्रगति के द्वार बन्द नहीं करने चाहिए। आज दर्शन को नया आयाम देने की जरूरत है। यदि उसको नया आयाम नहीं दिया जायेगा तो दर्शन सर्वथा प्रयोग शून्य और अर्थ शून्य बन जाएगा। अनुभव सिद्ध तथ्य आचार्य महाप्रज्ञ ने अनुभव सिद्ध तथ्य कहा है कि पुरानी भाषा किसी समय सबके लिए सुगम थी किन्तु समय के प्रभाव के साथ आज वह सुगम नहीं रही। विज्ञान की पद्धति से प्राचीन रहस्यों को अधिक सरलता से स्पष्ट किया जा सकता है। पुराने ग्रन्थ हैं उनमें सांकेतिक भाषा बहुत है - स्पष्टताएं कम हैं। हमने विज्ञान के माध्यम से जो बातें समझी हैं, वे बातें पुराने ग्रन्थों के आधार पर नहीं समझी जा सकती। विज्ञान का एक और भी अवदान है, उसने हमें कुछ नए उपकरण दिए। एक उपकरण का संबंध आभामंडल से है। यह ऐसा उपकरण है जो हमारे व्यक्तित्व के सूक्ष्म अंश को प्रत्यक्ष गोचर कर सकता है। दर्शन सदा से सूक्ष्म और अभूर्त की चिंता करता रहा है। जितने अंश में विज्ञान ने अमूर्त को पकड़ा उतने अंश में वह दर्शन के निकट आ गया। सत्य में द्वैत नहीं आचार्य महाप्रज्ञ का स्पष्ट मत है कि सत्य में कोई द्वैत नहीं होता। वे कहते हैं कि - "किसी भी माध्यम से सत्य की खोज करने वाला जब गहरे में उतरता है और सत्य का स्पर्श करता है, तब मान्यताएं पीछे रह जाती हैं और सत्य उभरकर सामने आ जाता है। बहुत लोगों का एक स्वर है कि विज्ञान ने धर्म को हानि पहँचाई है, जनता को धर्म से दूर किया है। बहुत सारे धर्म गुरु भी इसी भाषा में बोलते हैं, किन्तु यह स्वर वास्तविकता से दूर प्रतीत होता है। मेरी निश्चित धारणा है कि विज्ञान ने धर्म की बहुत सत्यस्पर्शी व्याख्या की है और वह कर रहा है। जो सूक्ष्म रहस्य धार्मिक व्याख्या ग्रन्थों में अव्याख्यात हैं, जिनकी व्याख्या के स्रोत आज उपलब्ध नहीं है, उनकी व्याख्या वैज्ञानिक शोधों के सन्दर्भ में बहुत प्रामाणिकता के साथ
SR No.002201
Book TitleJain Vidya aur Vigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahaveer Raj Gelada
PublisherJain Vishva Bharati Samsthan
Publication Year2005
Total Pages372
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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