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[जैन विद्या और विज्ञान
आचार्य महाप्रज्ञ ने आभामण्डल के बारे में लिखा है कि मनुष्य हमारे. सामने प्रत्यक्ष है। उसका स्वभाव प्रत्यक्ष नहीं है। आकृति को जानना सरल काम है। प्रकृति को समझना बहुत कठिन है। इस कठिनाई का पार कैसे पाया जा सकता है? पार पाने के उपाय किए गए पर कोई भी उपाय पूर्ण रूपेण विश्वास देने वाला नहीं है। सम्बन्ध और सहवास के बाद पता चले उसका अर्थ कम हो जाता है। ज्यादा अर्थवान बात यह है कि सम्बन्ध से पहले समझने का सूत्र हाथ लग जाए। यदि आभामण्डल को पढ़ने की विद्या का विकास हो जाए तो परोक्ष को साक्षात करना सहज हो जाएं।'. . एटम एण्ड ओरा .
एक अमेरिकन महिला डॉ. जे.सी. ट्रस्ट ने हाई फ्रीक्वेंसी के कैमरों से . . फोटो लिए हैं। वह अपनी पुस्तक 'एटम एण्ड ओरा' में लिखती हैं - मैंने साफ-सुथरे और सुंदर शरीर वाले व्यक्तियों के फोटो लिए, किंतु उनका आभा मण्डल बहुत मैला, घिनौना, भद्दा देखते ही घृणा उत्पन्न करने वाला था। यह उनके मनोभावों का प्रतीक था। ऐसे लोगों के फोटो लिए जो दिखने में भद्दे, मैले-कुचेले थे किंतु उनका आभामण्डल उज्ज्वल, निर्मल और पवित्र था। आज के आदमी का विश्वास बाहरी शुद्धि में अधिक है, भीतरी शुद्धि में कम है। भावधारा और आभामण्डल
प्रेक्षाध्यान के प्रयोगों के आधार पर कहा गया है कि भावधारा (लेश्या) से आभामंडल बदलता है और लेश्या ध्यान के द्वारा आभामंडल को बदलने से भावधारा भी बदल जाती है। आचार्य महाप्रज्ञ की अवधारणा है कि मस्तिष्क का एक हिस्सा, 'लिम्बिक सिस्टम' वह बिंदु है जहां आत्मा और शरीर का मिलन होता है। इस दृष्टि से लेश्यांध्यान या चमकते हुए रंगों का ध्यान बहुत ही महत्त्वपूर्ण है। हमारी भावधारा जैसी होती है, उसी के अनुरूप मानसिक चिंतन तथा शारीरिक मुद्राएं और इंगित तथा अंग संचालन होता है। क्रोध की मुद्रा में रहने वाले व्यक्ति में क्रोध के अवतरण की संभावनाएं बढ़ जाती हैं। क्षमा की मुद्रा में रहने वाले व्यक्ति के लिए क्षमा की चेतना में जाना सहज हो जाता है। इस भूमिका में लेश्या-ध्यान की उपयोगिता बढ़ जाती है। लेश्या जैन दर्शन का पारिभाषिक शब्द है और इसका विस्तार से वर्णन हमें जैन आगम साहित्य में उपलब्ध होता है। वहां द्रव्य लेश्या और भाव लेश्या का अलग से वर्णन हुआ है।