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________________ जैन गणित और कर्मवाद] [237 काम शक्ति जब आगे बढ़ती है तो व्यक्ति बहिर्वृत्ति हो जाता है। जब काम शक्ति की प्रत्यावृत्ति होती है, तो व्यक्ति भीतर में सिमट जाता है। हम इसी कर्म शास्त्रिय भाषा का प्रयोग करें कि अविरति जब तीव्र होती है तब पुरुष बाहर की ओर भागता है जब अविरति कम होती है तब व्यक्ति अपने भीतर सिमटना शुरू हो जाता है तो आकाक्षाएं कम होती हैं, चंचलता कम हो जाती है। उपर्युक्त विवरण में आचार्य महाप्रज्ञ ने कर्मशास्त्र और मनोविज्ञान के तुलनात्मक अध्ययन के द्वार खोले हैं तथा इस अध्ययन को विकसित करने हेतु मार्ग को प्रशस्त किया है। आकर्षण-विकर्षण जैन दर्शन के अनुसार आत्मा या जीव जब कोई प्रवृत्ति करता है तो वह सूक्ष्म कर्म पदार्थ को आकर्षित करता है तथा कर्म उदय अवस्था में आत्मा से विकर्षित होते हुए मुक्त हो जाते हैं। आकर्षण और विकर्षण का यह गुण, कर्म-वर्गणा में होता है। वह संभवतः सूक्ष्म पुद्गल के स्निग्ध तथा रुक्ष स्पर्श की ही देन है क्योंकि शीत और उष्ण स्पर्श से यह गुण उत्पन्न होना संभव नहीं। सूक्ष्म पुद्गल में स्निग्ध, रुक्ष, उष्ण और शीत, ये चार स्पर्श ही होते हैं। कर्मों के आकर्षण और विकर्षण के गुण का वैज्ञानिक विवेचन करें तो स्निग्ध को धनात्मक और रुक्ष को ऋणात्मक कहा जा सकता है। यह भी संभव है कि यह गुण गुरुत्वाकर्षण के गुण के समान हो लेकिन गुरुत्वाकर्षण का गुण स्थूल पदार्थों में ही माना गया है। यह आश्चर्य की बात है कि न्यूटन के समय में गुरुत्वाकर्षण का सिद्धान्त पदार्थों में परस्पर केवल आकर्षण की ही बात कहता था लेकिन आज यह सिद्धान्त संशोधित हो चुका है और यह माना जाता है कि. गरुत्वाकर्षण का बल. निहारिकाओं में तथा अन्य पदार्थों में आकर्षण और विकर्षण दोनों का कारण है। जैनों ने कर्म में, स्निग्ध तथा रुक्ष दोनों परस्पर विरोधी गुणों की उपस्थिति मानी है जिससे आकर्षणविकर्षण दोनों गुणों को बता कर, सूक्ष्म कणों के व्यवहार को जानने में स्पष्टता प्रकट की है। नया चिन्तन - भगवती सूत्र में जीव और पुद्गल के बंध को समझाते हुए बताया है कि जीव और पुद्गल परस्पर बद्ध, स्पृष्ट, अवगाढ़, स्नेह-प्रतिबद्ध और एक घटक के रूप में रहते हैं। इसमें स्नेह-प्रतिबद्ध का अर्थ, स्नेह होना माने तो स्नेह दूर से भी रह सकता है। आवश्यकता यह है कि वे एक घटक के रूप में हो। इस पक्ष की पुष्टि हमें भौतिक विज्ञान के प्रायिकता सिद्धान्त से मिलती
SR No.002201
Book TitleJain Vidya aur Vigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahaveer Raj Gelada
PublisherJain Vishva Bharati Samsthan
Publication Year2005
Total Pages372
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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