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[ जैन विद्या और विज्ञान
समय बीतता है, रस बढ़ता जाता है। अतः हमें मोह विलय की साधना में अपने पुरुषार्थ का ज्यादा से ज्यादा नियोजन करना चाहिए।
आगमिक भाषा में कर्म की एक मुख्य प्रकृति है - मोहनीय कर्म । इसके चार आवेग माने हैं - क्रोध, मान, माया, और लोभ । प्रत्येक की चार अवस्थाएं हैं -
» तीव्रतम-अनन्तानुबन्धी > तीव्रतर-अप्रत्याखानी » मंद-प्रत्याखानी > मंदतर-संज्वलन
आचार्य महाप्रज्ञ ने इसकी विस्तार में तुलना की है। जब ये चारों आवेग नष्ट हो जाते हैं, इनकी चारों अवस्थाएं क्षीण हो जाती हैं तब वीतरागता की स्थिति आती है। आवेगों के अभाव को जैन दर्शन में अत्यधिक महत्त्व दिया गया है। मोह कर्म के शांत होने से मन पर, मन की शांति पर और स्वास्थ्य पर भी प्रभाव होता है। आज की मनोवैज्ञानिक खोजों ने विषय को बहुत उजागर किया है कि आवेगों के कारण कितने प्रकार के रोग उत्पन्न होते हैं। जैनाचार्यों को भी इसका ज्ञान था लेकिन मानवशास्त्रीय खोजों से चामत्कारिक प्रकाश पड़ता है। आज सत्तर-अस्सी प्रतिशत बीमारियां मानसिक आवेगों के कारण होती हैं। कोध, भय - ये बीमारी के उत्पादक हैं। ये आवेग कर्म बंध के कारण तो बनते ही हैं तथा शरीर के लिए भी लाभदायक नहीं
आवेग नियंत्रण
कर्म शास्त्र की भाषा में आवेग नियंत्रण की तीन पद्धतियां हैं - उपशमन, क्षयोपशम और क्षयीकरण। मनोविज्ञान की भाषा में उपशमन को दमन पद्धति कहा गया है। यह व्यक्ति को लक्ष्य तक नहीं पहुंचा पाती। गुणस्थानों के विवरण में भी उपशमन के लिए कहा गया है कि कषाय के दबे हुए भाव उभरते हैं तो वह सम्यक्ती से च्युत हो जाता है। क्षयोपशम को मनोविज्ञान की भाषा में उदात्तीकरण की पद्धति कहा गया है तथा क्षयीकरण में सभी आवेग समाप्त हो जाते हैं।
आज की चिकित्सा-पद्धति ने इतना विकास कर लिया है कि वह आपरेशन के द्वारा, या बिजली के झटके दे कर आवेगों को, विभिन्न आदतों को मिटाने में सक्षम हैं। काम वासना का आवेग, कषाय का आवेग, भय का