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जैन गणित और कर्मवाद]
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स्थापित करते हुए महाप्रज्ञजी कहते हैं कि ज्ञानावरण के कारण ही मस्तिष्क विकसित नहीं हुआ है। अमनस्क जीवों (non-vergetta) में पृष्ठरज्जु और मस्तिष्क नहीं होते। समनस्क जीवों (vergetta) के पृष्ठरज्जु और मस्तिष्क होते हैं। फिर भी उनका विकास समान नहीं होता। ज्ञानावरण-विलय के तारतम्य के आधार पर वह तरतमता युक्त होता है। गुण-सूत्र
स्थूल शरीर में 60-70 खरब कोशिकाएँ हैं, इन कोशिकाओं में होते हैं गुण सूत्र। प्रत्येक गुण सूत्र 10 हजार जीन्स से बनता है वे सारे संस्कार सूत्र हैं हमारे शरीर में 46 क्रोमोसोम होते हैं। वे जीन्स से बनते हैं। प्रत्येक जीन में साठ लाख आदेश लिखे हुए होते हैं। तब प्रश्न होता है कि क्या हमारी चेतना एक क्रोमोसोम और जीन में नहीं है ? एक व्यक्ति से दूसरे व्यक्ति के बीच की तरतमता, असमानता का कारण प्राचीन भाषा में कर्म है। जीन की खोज ने सूक्ष्म कर्म शरीर को समझने में मदद की है। हमारा प्रत्येक सेल एक टिमटिमाता दीपक है और प्रत्येक कोशिका एक पावर हाउस है।
मानस शास्त्र के अनसार आवेग छह है - भय, क्रोध, हर्ष, शोक, प्रेम और घृणा। सारे मानवीय आचरणों की व्याख्या आवेगों के आधार पर की जाती हैं। आवेग का प्रभाव हमारे स्नायु तन्त्र पर, पेशियों पर, रक्त पर और रक्त के प्रवाह पर, फेफड़ों पर, हृदय की गति पर, श्वास पर और ग्रंथियों पर होता
है।
मोहनीय कर्म
आचार्य महाप्रज्ञ मोहनीय कर्म की व्याख्या करते हुए लिखते हैं कि इस दुनिया में क्या अच्छा है और क्या बुरा, इसे प्रायः सब जानते हैं। किंतु जानते हुए भी अच्छाई की दिशा में गति नहीं हो पाती तथा बुराई का परिहार नहीं हो पाता। कर्म शास्त्रीय भाषा में इसका हेतु है मोह। आजकल व्यक्ति परिस्थिति को बहुत दोष देता है, पर परिस्थिति का प्रभाव भी वहीं होता है, जहां मोह है। जिसका मोह शांत है, उसे परिस्थिति कभी प्रभावित नहीं करती। स्थूलिभद्र ने कोशा वेश्या के घर चातुर्मास किया, पर स्थितियां उन्हें किंचित भी प्रभावित नहीं कर सकीं।
जब मोह शांत होता है, धृति और वीतरागता का विकास होता है। पौद्गलिक पदार्थ से मिलने वाले सुखों की एक निश्चित अवधि है। वीतरागता . से मिलने वाला सुख प्रारंभ में कुछ कम सरस लग सकता है, पर जैसे-जैसे