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[जैन विद्या और विज्ञान
परिभाषा
कर्म की अवधारणा भारतीय चिन्तन में व्याप्त है लेकिन प्रत्येक दर्शन ने कर्म की परिभाषा अलग-अलग दी है। मीमांसक परम्परा में यज्ञ - इत्यादि, नित्य नैमित्तिक क्रियाओं को, गीता में कायिक आदि प्रवृतिओं को, योग एवं वेदान्त में कर्म के साथ क्रियात्मक अर्थ को भी कर्म ही माना है। जैन सिद्वान्त दीपिका में कहा है -
आत्मनः सदसत्प्रवृत्याकृष्टास्तत्प्रायोग्यपुद्गलाः कर्म .
आत्मा की सत् एवं असत् प्रवृत्ति के द्वारा आकृष्ट एवं कर्मरूप में परिणत होने योग्य पुद्गलों को कर्म कहा है। पुद्गल को भौतिक पदार्थ कहा जा . . सकता है। कर्म सूक्ष्म पुद्गल पदार्थ हैं। ये चतुः स्पर्शी पुद्गल हैं। चतुः स्पर्शी पुद्गल भारहीन होते हैं। भारहीनता के कारण इनका व्यवहार, इन्द्रियों के ज्ञान से परे हो जाता है। इसी विशेषता के कारण कर्म के व्यवहार को प्रत्यक्ष जाना नहीं जाता। आचार्य महाप्रज्ञ के अनुसार सूक्ष्म पुद्गल अदृश्य है और वे किसी भी सूक्ष्मतम उपकरण से नहीं देखे जा सकते। फिर भी इस संभावना से इंकार नहीं किया जा सकता कि वैज्ञानिकों के सूक्ष्म उपकरण, कभी कर्मपुद्गलों का फोटो ले सकेंगे। मनोविज्ञान
मानव प्रवृति जन्मजात होती है या बनाई जाती है? इस पर अरस्तू और प्लेटो ने और बाद में जॉन लॉक और डेविड हयूम ने तर्क दिया था कि मनुष्य का दिमाग अनुभवों से बना है जबकि विज्ञानी जीनं जेक्स, रूसो और केन्ट ने कहा है कि मनुष्य की प्रकृति अपरिवर्तनीय है। फ्रायड का कहना है कि मनुष्यत्व का निर्माण माता-पिता, सपनों, हंसी-ठहाकों और यौन-क्रियाओं से बना हैं। फ्रांस बोयस ने कहा है कि " भाग्य और वातावरण ही सांस्कृतिक विविधता के लिए जिम्मेदार होते है।
जीव विज्ञान की आधुनिक विकसित शाखा जैव प्रौद्योगिकी में मानव जीनोम परियोजना, जैनेटिक अभियांत्रिकी तथा मानव क्लोनिंग आदि का अध्ययन, अन्वेषण किया जाता है। इसके नूतन अनुसंधानों के द्वारा जीवों के गुणसूत्रों पर स्थित जीवों (वंशाणुओं) के कई गुणधर्मों का पता चल रहा है। जीवों की विभिन्न प्रवृत्तियों – बुढ़ापा, अपराध, बीमारियों इत्यादि का नियमन भी इन वंशाणुओं से होता है तथा इनके परिवर्तन के द्वारा मनोवांछित-जीवन बनाने का दावा वैज्ञानिक कर रहे हैं।