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________________ जैन गणित और कर्मवाद] [227 का योग रहता है। दोनों की अपनी-अपनी सीमाएं हैं। नियति को छोड़कर केवल पुरुषार्थ के आधार पर जीवन की समग्रता से व्याख्या नहीं की जा सकती। यह कहा जाता है कि आदमी जैसा कर्म करता है वैसा ही उसे भुगतना पड़ता है लेकिन इससे आदमी का पुरुषार्थ का दीप बुझ जाता है। वह मानने लग जाता है कि मैं कुछ कर नहीं सकता। यह एकांगी दृष्टिकोण इस मिथ्या धारणा ने अनेक भ्रान्तियाँ पैदा की हैं। इस धारणा ने गरीबी, बीमारी, दुर्व्यवस्था और अज्ञान को बढ़ने में सहारा दिया है। आचार्य महाप्रज्ञ के अनुसार कर्मवाद को एकांगी उत्तरदायी मान लेना गलत धारणा है। यद्यपि कालवाद, स्वभाववाद, नियतिवाद का भी महत्त्व कम नहीं हैं फिर भी ये इतने व्यापक नहीं है जितना कर्मवाद व्यापक है। किंतु यह सही प्रतीत होता है कि कर्म एक निरंकुश सत्ता नहीं है। कर्म पर भी अंकुश है। कर्मों में परिवर्तन किया जा सकता है। कर्मों में उदीरणा, उत्कर्षण, अपकर्षण तथा संक्रमण संभव है। ये प्रक्रियाएं कर्मों को रूपान्तरित करती है। परिवर्तनशीलता .. . कर्मवाद का सिद्धान्त बुराई से बचने के लिए तथा नैतिक जीवन जीने के लिए एक महत्त्वपूर्ण सिद्धान्त हैं किन्तु इसे पराजयवादी मनोवृत्ति के साथ जोड़ दिया गया। वह पलायनवादी, निराशावादी हो गया। वास्तव में कर्म पुरुषार्थ से जुड़ी हुई प्रेरणा है। कर्मवाद वर्तमान की समस्या को समाहित करने में सक्षम है। आचार्य महाप्रज्ञ की यह यर्थाथवादी व्याख्या, समाज प्रदत्त अव्यवस्था पर करारा प्रहार है। दार्शनिक विवेचन कर्म भारतीय दर्शन में एक प्रतिष्ठित सिद्धान्त है। उस पर लगभग सभी पुनर्जन्मवादी दर्शनों ने विमर्श प्रस्तुत किया है। पूरी तटस्थता के साथ कहा जा सकता है कि इस विषय का सर्वाधिक विकास जैन दर्शन में हुआ है। कर्मशास्त्र में शरीर रचना से लेकर आत्मा के अस्तित्व तक, बन्धन से लेकर मुक्ति तक सभी विषयों पर गहन चिन्तन और दर्शन मिलता है। इस जगत में व्यापक रूप से दिखाई देने वाली भिन्नता का क्या कारण है? अप्रत्यक्ष कारण की खोज में दर्शन जगत में काल, स्वभाव, नियति, ईश्वर, कर्म आदि सिद्धान्तों का आविर्भाव हुआ। जैन दर्शन ने जीव और जगत के वैविध्य का कारण कर्म को स्वीकार किया। भगवती सूत्र में भगवान महावीर ने कहा है, "जीव कर्म के द्वारा विभक्ति भाव अर्थात् विभिन्नता को प्राप्त होता है।'
SR No.002201
Book TitleJain Vidya aur Vigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahaveer Raj Gelada
PublisherJain Vishva Bharati Samsthan
Publication Year2005
Total Pages372
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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