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________________ 226] [ जैन विद्या और विज्ञान । कर्मवाद आचार्य महाप्रज्ञ के अनुसार, कर्म सिद्धान्त, जैन दर्शन का एक महान सिद्धान्त है। इसकी अनन्त गहराइयों में डुबकी लगाना उस व्यक्ति के लिए अनिवार्य है, जो अध्यात्म के अंतस् की उष्मा का स्पर्श चाहता है। कर्मशास्त्र में हमारे आचरणों की कार्य-कारणात्मक मीमांसा है। हमारे अतीत का लेखाजोखा है। वे कहते हैं कि जैन दर्शन में कर्मवाद की जो मीमांसा हुई है, उसका मनोवैज्ञानिक अध्ययन अभी नहीं हुआ है। यदि वह हो तो मनोविज्ञान और योग के नए उन्मेष हमारे सामने आ सकते हैं। मनोविज्ञान को पढ़ने पर उन्हें लगा कि जिन समस्याओं पर कर्मशास्त्रियों ने अध्ययन और विचार किया था, उन्हीं समस्याओं पर मनोवैज्ञानिक अध्ययन और विचार कर रहे हैं। यदि मनोविज्ञान के संदर्भ में कर्मशास्त्र को पढ़ा जाए तो उसकी अनेक ग्रन्थियां : सुलझ सकती हैं, अनेक अस्पष्टताएं स्पष्ट हो सकती हैं। कर्मशास्त्र के संबंध में यदि मनोविज्ञान को पढ़ा जाए तो उसकी अपूर्णता को समझा जा सकता है और अब तक अनुत्तरित प्रश्नों के उत्तर खोजे जा सकते हैं। ___ आचार्य महाप्रज्ञ की दृष्टि में कर्मशास्त्र, योगशास्त्र तथा मनोविज्ञान तीनों का समन्वित अध्ययन होने पर ही हम अध्यात्म के सही रूप को समझ सकते हैं और उसका उचित मूल्यांकन कर सकते हैं। मनोविज्ञान के अतिरिक्त कर्मवाद, गणित की जटिलता से बहुत गुंफित है। कर्मवाद का अध्ययन मनोविज्ञान और गणित के अभाव में होने के कारण यह महान सिद्धान्त उपयोगी कम हुआ है, आवरण अधिक बना है। पाठकगण, इस अध्याय में आचार्य महाप्रज्ञ के मनोविज्ञान और जीन्स के संबंध में विचार पढ़ेंगे। कर्म और पुरुषार्थ कर्मवाद को मानने वाले प्रत्येक कार्य के लिये कर्म को उत्तरदायी बता देते हैं। ईश्वरवाद को मानने वाले ईश्वर को और नियतिवाद को मानने वाले नियति पर सारा उत्तरदायित्व डाल देते हैं। " हम क्या करें कर्म में ऐसा ही लिखा था"| जीवन और जगत के विकास में पुरुषार्थ और नियति दोनों
SR No.002201
Book TitleJain Vidya aur Vigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahaveer Raj Gelada
PublisherJain Vishva Bharati Samsthan
Publication Year2005
Total Pages372
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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