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________________ जैन गणित और कर्मवाद] [ 221 उसे चला हुआ मानना चाहिए। आचार्य महाप्रज्ञ ने 'चलमाणे चलिए' का विस्तार से विवेचन किया है। विज्ञान और जैन दर्शन की समानता का यह विशिष्ट उदाहरण है। कई विद्वानों ने अभाव को शून्य माना है, यह गणितीय विधा के अन्तर्गत नहीं आता इसलिए इसका विवरण यहां नहीं दिया गया है। संख्या आठ प्रकार की बतलाई है। उसमें एक भेद है गणना। गणना के मुख्य तीन भेद हैं - संख्य, असंख्य और अनन्त। इनके अवान्तर भेद बीस होते हैं। यथा - . संख्य के तीन भेद हैं (1) जघन्य (Minimum) (2) मध्यम (Optimum) (3) उत्कृष्ट (Maximum) असंख्य के नौ भेद है - (1) जघन्य परीत असंख्येय (2) मध्यम परीत असंख्येय (3) उत्कृष्ट परीत असंख्येय (4) जघन्य युक्त असंख्येय (5) मध्यम युक्त असंख्येय (6) उत्कृष्ट युक्त असंख्येय • (7) जघन्य असंख्येय असंख्येय (8) मध्यम असंख्येय-असंख्येय एवं .. (७) उत्कृष्ट असंख्येय -असंख्येय। 'अनन्त के आठ भेद हैं - (1) जघन्य परीत अनन्त (2) मध्यम परीत अनन्त (3) उत्कृष्ट परीत अनन्त (4) जघन्य युक्त अनन्त (5) मध्यम युक्त अनन्त (6) उत्कृष्ट युक्त अनन्त (7) जघन्य अनन्त-अनन्त (8) मध्यम अनन्त-अनन्त एवं (9) उत्कृष्ट अनन्त-अनन्त, असद्भाव होने से यह भेद गणना में नहीं लिया गया है। __ जघन्य संख्या दो है और अंतिम संख्या अनन्त है। जिस प्रकार संख्या 'एक' को गणना में स्वीकार नहीं किया है, वैसे ही उत्कृष्ट अनन्त-अनन्त को भी असद्भाव होने से गणना संख्या स्वीकार नहीं किया है इसका फलित यह
SR No.002201
Book TitleJain Vidya aur Vigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahaveer Raj Gelada
PublisherJain Vishva Bharati Samsthan
Publication Year2005
Total Pages372
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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