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जैन गणित और कर्मवाद]
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(i) एक समस्या यह रही होगी कि अस्तित्व गत द्रव्यों का कोई भी
गुणधर्म अगर शून्य हो जाता है तो फिर वह गुणधर्म पुनः कैसे
प्राप्त हो सकेगा? (ii) दार्शनिक दृष्टि यह रही होगी कि सत्, अगर एक बार असत्
हो जाता है तो फिर असत् से सत् किस प्रकार प्राप्त हो सकेगा? (iii) यहां हम उक्त समस्या को पुदगलों के गुणों के उदाहरण से
समझने का प्रयत्न करेंगे। परमाणु के गुणधर्म, वर्ण गंध रस स्पर्श द्वारा अभिव्यक्त किए जाते हैं। जैसे कोई परमाणु एक गुण काला है, तो कोई संख्यात् या असंख्यात् या अनन्त गुण काला है। वह संयोग-वियोग करता हुआ काले वर्ण में गुणात्मक परिवर्तन करता है लेकिन जैन दृष्टि से किसी भी स्थिति में परमाणु शून्य गुण काला नहीं होता। इसी प्रकार परमाणु के स्पर्श में होने वाले गुणात्मक परिवर्तनों का उदाहरण दे सकते हैं। कोई भी परमाणु का मौलिक स्पर्श का गुण स्निग्ध, रुक्ष अथवा शीत, उष्ण शून्य गुण नहीं हो सकता। न्यूनतम गुणों की संख्या में 'एक' गुण का
होना सदैव माना गया है। (iv) यहां हमें यह समझना है कि यह 'एक' संख्या वास्तव गणना
संख्या नहीं है अपितु, शून्य के निकटतम अंश को प्रकट करती है। जो शून्य होकर भी शून्य नही है। इसे शून्यवत या शून्येतर (Non-Zero) कहा जा सकता है। इसका एक प्रमाण यह उपलब्ध है कि जैन गणितज्ञों ने उत्कृष्ट अनन्त-अनन्त को भी स्वीकार नहीं किया है। उसे असद्भाव कहा है। इससे यह धारणा स्पष्ट हो जाती है कि परम शून्य और उत्कृष्ट अनन्त-अनन्त, इस जगत में नहीं है। परम शून्य से कुछ अधिक और उत्कृष्ट अनन्त-अनन्त से कुछ कम, इन दोनों के बीच ही समस्त गणित समाविष्ट है। यहां हम भौतिक विज्ञान
के दो उदाहरण प्रस्तुत करेंगे। 1. ताप के माप की दो परम्पराएं प्रचलित हैं। (i) सेन्टीग्रेड माप °C (ii) एब्सोल्यूट माप °K
साधारणतः हम शून्य डिग्री सेन्टीग्रेड से प्रारम्भ होकर आगे के ताप का माप करते हैं। जब हम कहते हैं कि पानी 0°C पर बर्फ जम जाता है