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[जैन विद्या और विज्ञान
इस प्रकार आगे की संख्याओं के परिणाम भी 9 आते हैं। यद्यपि ऐसा 9 की संख्या और उसके गुणनफल में भी होता है लेकिन 84 की संख्या में होना अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है। उपर्युक्त विवेचन केवल संभावना को ही प्रकट करता है क्योंकि जैन आगम साहित्य में ऐसा वर्णन उपलब्ध नहीं है। गणना संख्या
श्वेताम्बर और दिगम्बर दोनों परम्पराओं ने प्रारंभिक संख्या 'एक' को गणना संख्या में नहीं माना है। आचार्य महाप्रज्ञ के अनुसार एक संख्या गणना संख्या में नहीं आती क्योंकि लेन-देन के व्यवहार में अल्पतम होने के कारण 'एक' की गणना नहीं होती। संख्यति इति संख्या' अर्थात् जो विभक्त हो सके, वह संख्या है। इस दृष्टि से जघन्य (minimum) गणना संख्या दो से प्रारम्भ ' मानी है। इस दिलचस्प प्रकरण के महत्त्व को देखते हुए, पाठकों के लिए अन्य गणितज्ञों की राय भी उल्लेखनीय है क्योंकि यह विषय गणित के इतिहास से संबंधित है।
गणितज्ञ यूक्लिड ने आकाश के सूक्ष्मतम बिंदु का कोई आयाम नहीं माना है। यद्यपि आकाश में बिंदुओं से मिलकर ही कोई आयाम (लम्बाई, चौड़ाई और ऊंचाई) निर्धारित होता है। इसी प्रकार वैज्ञानिक न्यूटन ने भी पदार्थ के सूक्ष्मतम कण परमाणु को माप का किसी भी गणना में उपयोग नहीं बताया है यद्यपि परमाणुओं के समूह से ही पुद्गल पदार्थ की रचना होती है। उपर्युक्त दोनों उदाहरणों से यह धारणा बनती है कि आकाश का सूक्ष्मतम अंश बिंदु तथा पदार्थ का सूक्ष्मतम कण परमाणु का आकार शून्यवत माना गया है। लेकिन आइंस्टीन ने गाउजियन पद्धति की ज्यामिति का प्रयोग करते हुए आकाश के सूक्ष्मतम बिंदु का अन्य सूक्ष्मतम कणों से तुलना की है। इसी प्रकार जैन साहित्य में भी द्रव्यों के सूक्ष्मतम अंशों की परस्पर में तुलना की गई है। जैसे, पुद्गल का सूक्ष्मतम अंश परमाणु, आकाश का सूक्ष्मतम अंश प्रदेश और काल का सक्ष्मतम अंश समय की परस्पर में समतल्यता स्थापित की गई। अतः प्रकृति के मूल तत्त्वों के सूक्ष्मतम अंश को शून्य नहीं कहा जा सकता। जैन दार्शनिकों ने 'एक' को संख्या कहा है लेकिन 'एक' को द्रव्यों के सूक्ष्मतम् अंशों के लिए गणना संख्या में स्वीकार नहीं किया है।
यहां हम गंभीरता से इस तथ्य को जानने का प्रयास करें कि . जैन आगम साहित्य में, शून्य अंक को कहीं स्थान क्यों नहीं दिया गया? इसके निम्न कारण हो सकते हैं -