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जैन गणित और कर्मवाद]
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लेकिन यह प्रश्न बना रहता है कि वर्गित रूप, चौरासी लाख के बाद क्यों प्रारम्भ हुआ? इसके तीन संभावित कारण हो सकते हैं। (i) जैन सिद्धांत में जीव की चौरासी लाख योनियां बताई गई हैं।
जीव, इन्हीं योनियों में बार-बार भ्रमण करता रहता है, चक्कर लगाता रहता है, जब तक कि मोक्ष प्राप्त न हो। इस सैद्धान्तिक संख्या से अधिक क्रमबद्ध संख्या जानने की उपयोगिता न समझ कर संभवतः आगे की संख्या वर्गित कर वृद्धि की गई प्रतीत होती
है क्योंकि वर्गित कर संख्या वृद्धि का उपक्रम स्वीकृत था। (ii) जैन दर्शन के इस महत्त्वपूर्ण सिद्धांत की अगर गणितीय कल्पना
करें तो चौरासी लाख योनियों में चक्कर को वृत्त (circle) के क्षेत्र से दर्शाया जा सकता है। वृत्त का क्षेत्रफल Tr2 होता है जिसमें का गणितीय मूल्य 3.14 निश्चित तथा अपरिवर्तनीय होता है। वृत्त का अर्द्धव्यास (r) बदलता रहता है जो वृत्त के क्षेत्र में वृद्धि करता रहता है। इस ज्यामिति से भी हम इस परिणाम पर पहुंचते हैं कि क्षेत्र-वृद्धि में 72 का उपयोग हुआ है, अर्थात् अर्द्धव्यांस को वर्गित किया गया है। अतः वर्गित कर
संख्या में वृद्धि करने का औचित्य समझ में आता है। ... (iii) अंकों की दृष्टि में, 84 संख्या की विशेषता यह है कि इसे पुनः
पुनः वर्गित करने पर जो संख्याएं आती हैं उनमें प्रत्येक संख्या के
अंकों का परस्पर में योग नौ (9) होता है। संख्या के मूल दस . . अंक होते हैं। वे हैं 0 से 9 तक। इसमें 9 संख्या सर्वाधिक
· · होती है। 9 संख्या को दैवीय तथा पवित्र माना जाता है।
उदाहरणतः (i) 84 x 84 = 7056 ;
संख्या के अंकों का योग (7+0+5+6) = 18 ;
पुनः अंकों का योग (1+8) = 9 (ii) 84 x 84 x 84 = 592704 ;
संख्या के अंकों का योग (5+9+2+7+0+4) = 27 ;
पुनः अंकों का योग (2+7) = 9 (iii) 84 x 84 x 84 x 84 = 49787136 ;
संख्या के अंकों का योग (4+9+7+8+7+1+3+6) = 45; पुनः अंकों का योग (4+5) = 9