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[ जैन विद्या और विज्ञान
2. अवक्तव्य (i) दो संख्या का वर्ग करने पर, वृद्धि देखी जाती है अतः दो संख्या को नोकृति नहीं कहा जा सकता। .
(2)2 = 2 x 2 = 4 (ii) इसमें से वर्ग का मूल कम करने पर, मूल संख्या प्राप्त हो जाती है।
4 - 2 = 2 (iii) इस प्राप्त संख्या को पुनः वर्गित कर, मूल को कम करने पर, संख्या में कोई वृद्धि नहीं होती।
(2)2 = 4
4 - 2 = 2 इन समीकरणों से ज्ञात होता है कि दो संख्या कृति भी नहीं है और
नो कृति भी नहीं है अतः इसे अवक्तव्य कहा गया है। 3. कृति (i) तीन संख्या को आदि लेकर वर्गित करने पर बृद्धि होती है।
__ अर्थात् (3)2 =.9 (ii) इस संख्या में से मूल संख्या कम करने पर भी वह मूल संख्या वृद्धिंगत ही रहती है।
__अर्थात् 9 - 3= 6 (iii) इस क्रम में दोहराने पर, वृद्धि निरंतर बनी रहती है।
(6)2 = 36
36 - 6 = 30 उपर्युक्त विवेचन से यह ज्ञात होता है कि (i) "एक" संख्या नोकृति है। (ii) "दो" संख्या अवक्तव्य है। (iii) तीन और इससे आगे की संख्या कृति है। . आचार्य महाप्रज्ञ ने लिखा है कि श्वेताम्बर और दिगम्बर परम्परा का यह अर्थभेद सचमुच आश्चर्यजनक है। कति और कृति दोनों का प्राकृत रूप कति या कदि बन सकता है। इस विवेचन से हम इस परिणाम पर पहुंच सकते हैं कि जैन अंकगणित में संख्या की वृद्धि में, मूल संख्या को वर्गित करने का गणितीय उपक्रम प्रचलित था।
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