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[ जैन विद्या और विज्ञान ।
उत्सर्पिणी - ये औपम्य-काल के भेद हैं। इनका उपयोग विभिन्न गतियों के जीवों के आयुष्य को मापने के लिए किया जाता है। औपम्य-काल का वर्णन इसी अध्याय में आगे किया गया है। इन संख्याओं के बाद का काल असंख्यात
और अनन्त के रूप में व्यवहृत किया जाता है। यहां ध्यान देने योग्य बात यह है कि चौरासी लाख से आगे की संख्या की इकाइयों का निर्धारण, पिछली संख्या को वर्गित कर निर्धारित किया गया है। जैसे 84 लाख वर्ष
= 1 पूर्वांग 84 लाख पूर्वांग
= 1 पूर्व 84 लाख पूर्व ' = 1 त्रुटितांग
84 लाख चूलिका - = 1 शीर्षप्रहेलिकांग 84 लाख शीर्ष प्रहेलिकांग = 1 शीर्षप्रहेलिका
वेदकालीन अंकगणित और जैन अंकगणित में दशमलव पद्धति का उपयोग हुआ है। इसमें दोनों की समानता है लेकिन संख्या वृद्धि में जहां वेदकालीन अंकगणित में पूर्ण रूप से दशमलव पद्धति का उपयोग हुआ है वहां जैन अंकगणित में चौरासी लाख की संख्या के बाद की संख्या वृद्धि में वर्ग-वृद्धि की गई हैं।
इसके अतिरिक्त भी हम पाते हैं कि जैन अंकगणित में, गणना संख्या को दो से प्रारम्भ माना है, एक से नहीं। 'एक' संख्या की विशेषता पर जैनों का दृष्टिकोण, दार्शनिक रहा है। इन संदर्भो के आधार पर यह कहा जा सकता है कि जैन अंकगणित का स्वंतंत्र विकास हुआ है।
जैन अंकगणित में यह प्रश्न चिन्तनीय है कि - . (i) संख्या वृद्धि में वर्गित करने का उपक्रम क्यों निर्धारत किया गया
जबकि वृद्धि सामान्यतया योग से होती है ? (ii) चौरासी लाख संख्या की क्या विशेषता है ? वर्गित करने उपक्रम - इस संदर्भ में स्थानांग सूत्र का नैरयिक जीवों की संख्या का वर्णन अवलोकनीय है जो निम्न प्रकार है। यहां तीन पारिभाषिक शब्दों का उल्लेख हुआ है, जो विमर्शनीय है।