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जैन गणित और कर्मवाद]
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संख्यात, असंख्यात, अनन्त
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शीर्षप्रहेलिका
आचार्य महाप्रज्ञ ने वेदकालीन अंकगणित की चर्चा करते हुए जैन आगमों में वर्णित गणना-संख्या की परमकोटि शीर्षप्रहेलिका की विशेषता का उल्लेख किया है। यजुर्वेद 17/2 में, 1 से 12 शून्य रख कर दस खरब तक की संख्या का वर्णन है। उस गणित शास्त्र में महाशंख तक की संख्या का व्यवहार होता है। वे 20 अंक इस प्रकार हैं। इकाई, दस, शत, सहस्म्र,
---- संख, दस संख, महासंख। महामंख से किसी बड़ी संख्या का वर्णन नहीं है। जैन प्राच्य साहित्य में लिखी जाने वाली सबसे बड़ी संख्या शीर्षप्रहेलिका है जिससे 54 अंक और 140 शून्य होते हैं। 194 अंकात्मक संख्या सबसे बड़ी संख्या है। यद्यपि एक अन्य वाचना में शीर्षप्रहेलिका की कुल 250 अंकों की संख्या मानी गई है। इस संख्या की तुलना में वेदकालीन उत्कृष्ट संख्या बहुत छोटी है। विज्ञान की सूक्ष्म गणित ने शीर्षप्रहेलिका की सत्यता को प्रतिस्थापित किया है और उसे महत्त्वपूर्ण खोज माना गया है। . जैन आगमों में काल के भेदों में संख्यात, असंख्यात और अनन्त का वर्णन आया है। काल के सूक्ष्मतम भाग को 'समय' कहा है। समय से लेकर शीर्षप्रहेलिका तक का काल मान्य है। शीर्षप्रहेलिका की संख्या से पूर्व की संख्याओं में हम पाते हैं कि चौरासी लाख की संख्या को विशेष महत्त्व दिया गया है। संख्या के विस्तार में चौरासी लाख तक तो संख्या की गणना की गई है, इसे पूर्वांग कहा है तथा इसके बाद संख्या सारिणी में आगे की संख्या की इकाईयों के निर्धारण में चौरासी लाख को चौरासी लाख में गुणा किया गया है अर्थात् वर्गित किया गया है। इस संख्या को 'पूर्व' कहा गया है। 'पूर्व' की संख्या को पुनः चौरासी लाख से गुणा करने पर जो संख्या प्राप्त होती है उसे त्रुटितांग कहा है। इस क्रम में संख्या के अट्ठाइस स्थान है। अन्तिम संख्या शीर्षप्रहेलिका है उसे निम्न प्रकार से लिखा जाता है -
(8400000)28 या (84 x 105)28 यद्यपि संख्यांत काल शीर्षप्रहेलिका से आगे भी है, किंतु सामान्य ज्ञानी के लिए व्यवहार्य शीर्षप्रहेलिका तक ही है। इसके आगे के काल को उपमा के माध्यम से निरूपित किया गया है। पल्योपम, सागरोपम, अवसर्पिणी,