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________________ 212] [ जैन विद्या और विज्ञान , घन के अर्थ में 'बृन्द' शब्द का भी यत्र-तत्र प्रयोग मिलता है। इसे 'समत्रिराशिघात' भी कहा जाता है। घन निकालने की विधियों में भी भिन्नता है। श्रीधर, महावीर और भाष्कर द्वितीय का कथन है कि तीन समान संख्याओं का गुणनफल घन है। 9. वर्ग-वर्ग- वर्ग को वर्ग से गुणा करना। इसे 'समचतुर्घात' भी कहते हैं। पहले मूल संख्या को उसी संख्या से गुणा करना। फिर गुणनफल की संख्या को गुणनफल की संख्या से गुणा करना। जो संख्या आती है उसे वर्ग-वर्ग फल कहते हैं। जैसे - 4x4 = 16; 16 x 16 = 256। यह वर्गवर्ग फल है। 10. क्रकच व्यवहार - कला गणित में इसे 'क्रकच-व्यवहार' कहते . हैं। यह पाटीगणित का एक भेद है। इससे लकड़ी की चिराई और पत्थरों की चिनाई आदि का ज्ञान होता है। जैसे - एक काष्ठ मूल में 20 अंगुल मोटा है और ऊपर में 16 अंगुल मोटा है। वह 100 अंगुल लम्बा है। उसको चार स्थानों में चीरा तो उसकी हस्तात्मक चिराई क्या होगी? मूल मोटाई और ऊपर की मोटाई का योग किया - 20 + 16 = 36 | इसमें 2 का भाग दिया 36 + 2 = 18। इसको लम्बाई से गुणा किया - 100 x 18 = 1800। फिर इसे चीरने की संख्या से गुणा किया 1800 x 4 = 7200।इसमें 576 का भाग दिया 7200 + 576 = 12यह हस्तात्मक चिराई है। . स्थानांग वृत्तिकार ने सभी प्रकारों के उदाहरण नहीं दिए हैं। उनका अभिप्राय यह है कि सभी प्रकारों के उदाहरण मन्द बुद्धि वालों के लिए सहजतया ज्ञातव्य नहीं होते अतः उनका उल्लेख नहीं किया गया है। सूत्रकृतांग 2/1 की व्याख्या के प्रारंभ में "पौंडरिक शब्द" के निक्षेप के अवसर पर वृत्तिकार ने एक गाथा उद्धृत की है, उसमें गणित के दस प्रकारों का उल्लेख किया है। वहां नौ प्रकार स्थानांग के समान ही हैं। केवल एक प्रकार भिन्न रूप से उल्लिखित है। स्थानांग का कल्प शब्द उसमें नहीं है। वहां 'पुद्गल' शब्द का उल्लेख है, जो स्थानांग में प्राप्त नहीं है।
SR No.002201
Book TitleJain Vidya aur Vigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahaveer Raj Gelada
PublisherJain Vishva Bharati Samsthan
Publication Year2005
Total Pages372
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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