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[ जैन विद्या और विज्ञान
पाटीसार (लगभग 1658 ई.) इन ग्रन्थों में उपर्युक्त बीस परिकर्मों और आठ व्यवहारों का वर्णन है। सूत्रों के साथ-साथ अपने प्रयोग को समझाने के लिए उदाहरण भी दिए गए हैं भास्कर द्वितीय ने लिखा है कि लल्ल ने पाटीगणित पर एक अलग ग्रन्थ लिखा है ।
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यहां श्रेणी व्यवहार का एक उदाहरण प्रस्तुत किया जाता है। सीढ़ी की तरह गणित होने से इसे सेढ़ी-व्यवहार या श्रेणी - व्यवहार कहते हैं। जैसेएक व्यक्ति किसी दूसरे को चार रूपये देता है, दूसरे दिन पांच रूपये अधिक, तीसरे दिन उससे पांच रूपये अधिक । इस प्रकार पन्द्रह दिन तक वह देता है तो कुल कितने रूपये दिए ?
प्रथम दिन देता है उसे 'आदि धन' कहते हैं। प्रतिदिन जितने रूपये बढ़ाता है उसे 'चय' कहते हैं। जितने दिनों तक देता है उसे 'गच्छ' कहते हैं। कुल धन को श्रेणी - व्यवहार या संवर्धन कहते हैं । अन्तिम दिन जितना देता है उसे 'अन्त्यधन' कहते हैं। मध्य मे जितना देता है उसे 'मध्यधन' कहते
हैं ।
विधि – जैसे – गच्छ 15 । इनमें एक घटाया 15-1 = 14 रहे। इसको चय से 14 x 5 गुणा किया - 70 आये। इसमें आदि धन मिलाया 70 + 4 = 74| यह अन्त्य धन हुआ। 74 + 4 आदि धन = 78 का आधा 39 मध्य धन हुआ ।
585 संवर्धन हुआ।
इसी प्रकार विजातीय अंक एक से नौ या उससे अधिक संख्या की जोड़, उस जोड़ की जोड़, वर्गफल और धनफल की जोड़, इसी गणित के विषय हैं
39 x 15 गच्छ =
3. रज्जु - इसे क्षेत्र गणित कहते हैं। इससे तालाब की गहराई, वृक्ष की ऊँचाई आदि नापी जाती है। भुज, कोटि, कर्ण, जात्यतिस्त्र, व्यास, वृत्तक्षेत्र और परिधि आदि इसके अंग हैं।
4. राशि इसे राशि व्यवहार कहते हैं। मोटे अन्न चना आदि में परिधि का 1/10 भाग वेध होता है। छोटे अन्न में परिधि का 1/11 भाग वेध होता है । शूर धान्य में परिधि का 1 / 9 भाग वेध होता है। परिधि का 1/6 करके उसका वर्ग करने के बाद परिधि से गुणन करने से घनहस्तफल निकलता है। जैसे - एक स्थान पर मोटे अन्न की परिधि 60 हाथ की है। उसका घनहस्तफल क्या होगा ?