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[ जैन विद्या और विज्ञान ,
की व्याख्या माननी चाहिए। इस सम्बन्ध में आचार्य महाप्रज्ञ का विवेचन उल्लेखनीय हैं वे लिखते हैं कि -
आकाश के दो गुण हैं। (i) क्षेत्र (ii) अवगाहन
क्षेत्र और अवगाहन में अन्तर स्पष्ट करते हुए कहते हैं कि क्षेत्र का संबंध आकाश-प्रदेशों से है। वह परमाणु और स्कन्ध द्वारा अवगाढ़ होता है। अवगाहन का संबंध पुद्गल द्रव्य से है। उसका अमुक परिमाण-क्षेत्र में प्रसारण होता है। आकाश श्रेणिऐं वक्राकार होने से, वहां अनन्त पुद्गल समा जाता है। . आकाश-काल
जैन आगम साहित्य में आकाश और परमाणु की भांति आकाश और काल की परस्पर में समतुल्यता बताते हुए आकाश के जघन्य और उत्कृष्ट स्वरूप को प्रकट किया है।
___ आकाश के जघन्य स्वरूप को प्रकट करते हुए कहा हैं कि एक परमाणु एक समय में अगर मन्दतम गति से चले तो वह एक आकाश प्रदेश से निकटतम दूसरे आकाश प्रदेश तक ही स्थानान्तरित हो सकता है। लेकिन आकाश के उत्कृष्ट स्वरूप को प्रकट करते हुए कहा हैं कि एक परमाणु एक समय में अगर तीव्रतम गति से चले तो वह लोक के एक अन्त से दूसरे अन्त तक (14 रज्जु) तक स्थानान्तरित हो सकता है। यह दो कथन भी विरोधाभाषी प्रतीत होते हैं। इसके समाधान में हमें इस तथ्य की ओर ध्यान
देना हैं कि गणित में जघन्य (Minimum) और उत्कृष्ट (Maximum) की व्याख्या का एक विशेष अर्थ है। यह केवल कम से कम और अधिक से अधिक आवश्यकता या उसके फलितार्थ को प्रकट करता हैं कि किन्ही विशेष परिस्थितियों में किसी घटना को कितने आकाश की आवश्यकता होगी। अतः उपर्युक्त कथनों को आकाश प्रदेश की परिभाषा नहीं माननी चाहिए।
विज्ञान की दृष्टि से यह समाधान दिया जा सकता है कि उपर्युक्त कथन सापेक्ष है। जब काल शून्य हो जाता है तो आकाश में दूरी गणना का विषय नहीं रहती है ।
इस प्रश्न के समाधान में अगर हम व्यावहारिक परमाणु और निश्चय परमाणु के अंतर की भांति तथा 'समय' और आवलिका के अंतर की भांति