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________________ 188] [जैन विद्या और विज्ञान 2. कोई जीव दो समय और एक वक्र वाली विग्रह-गति से उत्पत्ति स्थान में जाता है, तब वह प्रथम समय में अनाहारक और द्वितीय समय में आहारक होता है। 3. दो वक्र और तीन समय वाली विग्रह गति से उत्पन्न होने वाला जीव प्रथम और द्वितीय समय में अनाहारक होता है तथा तृतीय समय में आहारक होता है। उक्त दोनों संदर्भो के आधार पर यह सिद्धान्त फलित होता है द्वितीय समय में स्यात् आहारक, स्यात् अनाहारक। 4. कोई जीव तीन समय और दो वक्र वाली गति से उत्पत्ति-स्थान तक जाता है तब वह प्रथम और द्वितीय समय में अनाहारक होता . . है तथा तृतीय समय में आहारक होता है। तीन वक्र और चार समय वाली विग्रह गति से उत्पत्ति-स्थान तक जाने वाला जीव प्रथम समय में आहारक, द्वितीय और तृतीय समय में अनाहारक होता है। उक्त दोनों संदों के आधार पर यह सिद्धान्त फलित होता है - तृतीय समय में स्यात् आहारक, स्यात् अनाहारक। अभयदेवसूरि ने वक्रगति के प्रथम, द्वितीय और तृतीय - तीनों समयों में जीव को अनाहारक बतलाया है। मतान्तर के अनुसार पांच समय वाली अन्तरालगति में अनाहारक रहने के चार समयों का उल्लेख है। ___ अनाहारक विषयक तत्त्वार्थाधिगम का सूत्र श्वेताम्बर और दिगम्बर दोनों परम्पराओं में भिन्न है - एकं द्वौ त्रीन्वाऽनाहारकः अकलंक ने विग्रहगति के प्रथम, द्वितीय और तृतीय तीनों समय को अनाहारक बतलाया है। श्वेताम्बर-परम्परा के अनुसार सूत्रपाठ इस प्रकार है - एकं द्वौ वाऽनाहारकः सिद्वसेनगणी ने इस सूत्र की व्याख्या में लिखा है - दो वक्र वाली तीन समय की गति में मध्यवर्ती समय अनाहारक है तथा तीन विग्रह और चार समय वाली गति में मध्यवर्ती दो समय अनाहारक होते हैं। जयाचार्य ने अभयदेवसूरि के मत की समीक्षा की है तथा अनाहारक . के दो समय के सिद्धान्त का समर्थन किया है।
SR No.002201
Book TitleJain Vidya aur Vigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahaveer Raj Gelada
PublisherJain Vishva Bharati Samsthan
Publication Year2005
Total Pages372
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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