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________________ आगम और विज्ञान] [ 187 अनाहारक अवस्था आचार्य महाप्रज्ञ ने भगवती भाष्य में अनाहारक अवस्था का वर्णन निम्न प्रकार से किया है - आहार के चार प्रकार हैं - ओज आहार, लोम आहार, प्रक्षेप आहार और मनोभक्ष्य आहार। आहार का ग्रहण करने वाला आहारक और उसको ग्रहण न करने वाला. अनाहारक कहलाता है। ओज आहार का ग्रहण जन्म के प्रारम्भ में अन्तर्मुहूर्त तक किया जाता है। उसके पश्चात् लोम आहार का ग्रहण जीवन के अंतिम क्षण तक किया जाता है। प्रक्षेप आहार का ग्रहण भोजन-काल में किया जाता है। प्रत्येक शरीरधारी प्राणी संयोग-अवस्था में निरंतर आहार लेता है। आहार का ग्रहण भोजन-काल में किया जाता है। उसके बिना जीवन-क्रिया का संचालन नहीं होता। मनोभक्ष्य आहार मानसिक संकल्प के द्वारा सम्पन्न होता है। मनोवर्गणा के पुद्गलों का ग्रहण करना भी आहार है। . · आनाहार होना आपवादिक अथवा विशेष स्थिति है। इसके दो प्रसंग हैं - अन्तरालगति और केवली समुद्घात। (i) अन्तरालगति . जीव मृत्यु के पश्चात् भावी जन्मस्थल तक जाता है। दोनों के मध्यवर्ती गति का नाम अन्तरालगति है। प्रस्तुत सूत्र में आहारक और अनाहारक का प्रज्ञापन अन्तरालगति के संदर्भ में किया गया है। अन्तरालगति दो प्रकार की होती है - ऋजु और वक्र । जो जीव ऋजु - आयत श्रेणी में उत्पन्न होता है, वह एक समय में उत्पत्ति-स्थान में चला जाता है (चित्र 1, 2)। उत्पत्ति-स्थान एकतः वक्रश्रेणी में होता है, तो अन्तराल गति में दो समय लगते हैं (चित्र 3)। उत्पत्ति-स्थान उभयतः वक्र श्रेणी में होता है तो अन्तरालगति में तीन समय लगते हैं (चित्र 4)। अन्तरालगति चार समय की भी होती है (चित्र 5)। .. 1. जीव ऋजु गति से उत्पत्ति.स्थान तक जाता है तब वह परभवः ' आयुष्य के प्रथम समय में आहारक होता है। विग्रहगति से उत्पत्ति के स्थान तक जाने वाला जीव प्रथम समय में अनाहारक होता है। उक्त दोनों संदर्भो के आधार पर यह सिद्धांत फलित होता है - प्रथम समय में स्यात् आहारक, स्यात् अनाहारक।
SR No.002201
Book TitleJain Vidya aur Vigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahaveer Raj Gelada
PublisherJain Vishva Bharati Samsthan
Publication Year2005
Total Pages372
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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