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[ जैन विद्या और विज्ञान
पूर्वगत के चौदह विभाग हैं। वे पूर्व कहलाते हैं। उनका परिमाण बहुत ही विशाल है। वे श्रुत या शब्द-ज्ञान के समस्त विषयों के अक्षय-कोष होते हैं। इनकी रचना के बारे में दो विचारधाराएं हैं - पहली के अनुसार भगवान महावीर के पूर्व से ही ज्ञान राशि का यह भाग चला आ रहा था। इसलिए उत्तरवर्ती साहित्य रचना के समय इसे 'पूर्व' कहा गया।
दूसरी विचारणा के अनुसार द्वादशांगी से पूर्व ये रचे गए, इसलिए इन्हें 'पूर्व कहा गया।
__ पूर्वो में सारा श्रुत समा जाता है। किंतु साधारण बुद्धि वाले उसे पढ़ नहीं सकते। उनके लिए द्वादशांगी की रचना की गई। आगम-साहित्य में अध्ययन परम्परा के तीन क्रम मिलते हैं। कुछ श्रमण चतुर्दशपूर्वी होते हैं, कुछ द्वादशांगी. के विद्वान और कुछ सामायिक आदि ग्यारह अंगों के अध्येता। चतुर्दशपूर्वी श्रमणों का अधिक महत्त्व रहा है। उन्हें श्रुत-केवली कहा गया है। .
आज पूर्वो का ज्ञान विस्मृत हो चुका है। वे श्रमण जिन्हें चौदह पूर्वो का ज्ञान था वे एक अंतर्मुहूर्त (अधिकतम 48 मिनट) में समस्त ज्ञान का परावर्तन कर लेते थे। ये उनके स्वाध्याय का भाग था। इस विशिष्ट शक्ति पर सामान्यतः भरोसा या विश्वास नहीं किया जा सकता कि इतने थोड़े समय : में अगाध ज्ञान राशि का किस प्रकार परावर्तन करते होंगे ? किंतु वर्तमान विज्ञान जगत में काल की सूक्ष्म मर्यादा के अनेक उदाहरण मिलते हैं।
महाप्रज्ञ जी के अनुसार वर्क शायर (इंग्लैण्ड) के एल्डरमेस्टन अस्त्र अनुसंधान केन्द्र में एक ऐसा कैमरा बनाया गया है जो एक सैकण्ड में पांच करोड़ चित्र खींच लेता है। कम्प्यूटर के अविष्कार ने भी उपर्युक्त तथ्य को बोधगम्य बना दिया है क्योंकि कम्प्यूटर द्वारा एक सैकण्ड में एक लाख छियासी हजार गणित के भागों का (विकल्पों) समाधान संभव हो सकता है।
अतः मनोबल लब्धि वाला व्यक्ति एक अन्तर्मुहूर्त में चौदह पूर्वो का परावर्तन कर सकता है।
चतुर्दशपूर्व ऋद्धि के द्वारा सम्पूर्ण श्रुत का ज्ञान प्राप्त हो जाता है। शब्दात्मक ज्ञान के जितने विकल्प होते हैं वे सब उसे ज्ञात हो जाते हैं। ऐसा भी वर्णन मिलता है कि दशपूर्व ऋद्धि उस मुनि को प्राप्त होती है जो महारोहिणी आदि विद्या-देवताओं को देखने पर भी विचलित नहीं होता ।