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आगम और विज्ञान ]
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चौदह पूर्वों का परावर्तन
आचार्य महाप्रज्ञ ने चौदह पूर्वो के विवेचन में लिखा है कि जैन साहित्य आगम और आगमेतर इन दो भागों में बंटा हुआ है। आगम प्राचीनतम साहित्य है।
सर्वज्ञ और सर्वदर्शी भगवान ने अपने आपको देखा और समूचे लोक को देखा। भगवान ने तीर्थ चतुष्ट्य (साधु, साध्वी श्रावक श्राविका ) की स्थापना की । इसलिए वे तीर्थकर कहलाए। भगवान ने बन्ध, बन्ध हेतु, मोक्ष और मोक्ष हेतु का स्वरूप बताया ।
भगवान की वाणी आगम बन गई। उनके प्रधान शिष्य गौतम आदि ग्यारह गणधरों ने उसे सूत्र रूप में गूंथा । आगम के दो विभाग हो गए . सूत्रागम और अर्थागम। भगवान के प्रकीर्ण उपदेश को अर्थागम और उनके आधार पर की गई सूत्र - रचना को सूत्रागम कहा गया। वे आचार्यों के लिए निधि बन गए। इसलिए उनका नाम गणि-पिटक हुआ। उस गुम्फन के मौलिक भाग बारह हुए । इसलिए उनका दूसरा नाम हुआ द्वादशांगी। बारह अंग ये
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- (1) आचार, (2) सूत्रकृत, ( 3 ) स्थान (4) समवाय, ( 5 ) भगवती (6) ज्ञाताधर्मकथा, (7) उपासक- दशा, (8) अन्तकृतदशा, (9) अनुत्तरोपपातिक - दशा, (10) प्रश्न- व्याकरण, (11) विपाक, (12) दृष्टिवाद ।
स्थविरों ने इसका पल्लवन किया । आगम सूत्रों की संख्या हजारों तक पहुंच गई।
2. सूत्र 3. पूर्वानुयोग 4. पूर्वग 5. चूलिका ।
भगवान के चौदह हजार शिष्य प्रकरणकार ( ग्रन्थकार) थे। उस समय लिखने की परम्परा नहीं थी । सारा वांगमय स्मृति पर आधारित था । दृष्टिवाद के पांच विभाग हैं :
1. परिकर्म