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________________ 184] [ जैन विद्या और विज्ञान जयाचार्य ने 21वें तीर्थंकर नमि की स्तुति में उक्त विषय को काव्य की भाषा में लिखा है - सुर अनुत्तर विमाण ना सेवै रे, प्रश्न पूछया उत्तर जिन देवै रे। अवधिज्ञान करी जाण लेवै, प्रभु नमिनाथ जी मुझ प्यारा रे।। भगवान केवलीज्ञानी थे, इसलिए मन के स्तर पर पूछे गए, प्रश्न को जानना उनके लिए कठिन नहीं था। देवों के पास अवधिज्ञान था, इसलिए मन के स्तर पर दिए गए उत्तरों को समझ लेना उनके लिए संभव बना। भगवान केवली थे। केवली के ज्ञानात्मक मन (भावमन) नहीं होता। उनके पौद्गलिक मन (द्रव्यमन) होता है। वे पौद्गलिक मन का उपयोग करते हैं। जैन दर्शन में योग और उपयोग को अलग-अलग माना गया है। योग मन, वचन, काया की क्रियात्मक प्रवृत्ति है, जबकि उपयोग चेतना की ज्ञानात्मक प्रवृत्ति है। आधुनिक वैज्ञानिक अवधारणाओं के संदर्भ में इस भेद को और अधिक स्पष्ट समझा जा सकता है। ___शरीर विज्ञान में तन्त्रिका-तंत्र (nervous system) के दो प्रकार बताए गए हैं : 1. ज्ञानवाही तन्त्रिका (sensory nerve) 2. क्रियावाही तन्त्रिका (motor nerve) ज्ञानवाही तन्त्रिकाओं का अर्थ इन्द्रियों के माध्यम से ज्ञानात्मक क्रिया के रूप में होता है। मस्तिष्क के ज्ञानतंतु भी इसी ज्ञानात्मक क्रिया को सम्पादित करते हैं। क्रियावाही तन्त्रिकाएं मांसपेशियों के संचालन के माध्यम से शरीर की विभिन्न क्रियात्मक प्रवृत्तियों का संचालन करती है। वाणी का तंत्र भी स्वर-यंत्र के स्पन्दनों से संचालित होता है, जिसमें क्रियावाही तन्त्रिकाएं यह कार्य करवाती हैं। केवली जैसे इन्द्रियों के द्वारा ज्ञानात्मक क्रिया नहीं करते, उसी प्रकार मन के द्वारा भी ज्ञानात्मक क्रिया नहीं करते। अतः उसमें ज्ञानात्मक मन के रूप में भाव मन का अभाव है। पर क्रियावाही तंत्र का प्रयोग केवली द्वारा किया जाता है - शरीर एवं वाणी का योग इसी की निष्पत्ति है। उसी प्रकार क्रियात्मक मन की प्रवृत्तियां भी केवली कर सकते हैं, क्योंकि उनमें मनोयोग . की प्राप्ति है। इस मनोयोग के निष्पादन में पौद्गलिक मन का प्रयोग भी होता है। किंतु यह ज्ञानात्मक भाव मन से भिन्न है।
SR No.002201
Book TitleJain Vidya aur Vigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahaveer Raj Gelada
PublisherJain Vishva Bharati Samsthan
Publication Year2005
Total Pages372
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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