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________________ [ जैन विद्या और विज्ञान "परिचय वर्णन और गुण आलू की जन्मभूमि तो दक्षिण अमेरिका है। तो भी संस्कृत में आए हुए 'आलूनी' यह शब्द आलू अर्थात् बटाटा के लिए आया है, ऐसा मानकर कुछ लोग इस शाक को भारत की उपज बताने का जोरदार शब्दों में प्रतिपादन करते हैं। हमारा मत है कि शास्त्र में अनेक प्रकार के 'आलू' का वर्णन उपलब्ध है और वे सब डायोस्कोरिया – Dioscoria वर्ग के अर्थात् रेतालवर्ग के कन्दशाक है। निघण्टुकारों ने अनेक प्रकार के आलूओं का उल्लेख किया है ।" 182] "आलू जमीन के अंदर होते हैं, तो भी वस्तुतः इसको कन्द कहना ठीक नहीं है। मूंगफली जमीन के अंदर होती है, तो भी हम उसे कंद की गणना में नहीं मानते। इसी प्रकार आलू भी जमीन में होने पर भी कंद नहीं है। इसके पौधे में से डंडी बनती है, इस डंडी में से शाखाएं निकलती हैं और वे शाखाएं जमीन में घुस जाती हैं और फिर कंद के समान फूलती हैं । अर्थात् आलू तो Stem tuber स्टेमटयूबर है, Root tuber रूट टयूबर नहीं है। कुछ जैन लोग आलू को कंद मानकर उसका उपयोग नहीं करते, अतः इसका स्पष्टीकरण उचित प्रतीत हुआ है । खाना न खाना यह उनकी इच्छा का सवाल है । परंतु आलू कन्दमूल नहीं है।" आचार्य महाप्रज्ञ ने परम्परा से चली आई आलू के संबंध में धारणा का निराकरण किया है। यह तभी संभव हुआ है जब वनस्पति विज्ञान की आधुनिक खोजों का सहारा लिया है। विज्ञान के सही निष्कर्षों को अपनाने का साहस, आचार्य महाप्रज्ञ में है तभी तो वे युग प्रधान धर्माचार्यों की बेजोड़ परम्परा में आचार्य हैं |
SR No.002201
Book TitleJain Vidya aur Vigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahaveer Raj Gelada
PublisherJain Vishva Bharati Samsthan
Publication Year2005
Total Pages372
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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