________________
(xix)
सम्पादकीय
· सत्य संधान की दिशा में प्रस्थित जिज्ञासु सत्य-साक्षात्कार का लक्ष्य लेकर गतिशील होता है। सत्-सत्य स्वतः विद्यमान है। अस्तित्व का आविष्कार नहीं किया जा सकता, उसका अन्वेषण किया जा सकता है। सत्य क्या है? कैसा है? क्यों है? इन प्रश्नों से सत्य-साक्षात्कार की यात्रा प्रारम्भ होती है। इनके समाधान के साथ ही यात्रा का उद्देश्य कृत्कृत्य हो जाता है। ज्ञाता स्वयं मंजिल बन जाता है। मार्ग का उसके लिए कोई महत्त्व नहीं रह जाता है। जब तक जिज्ञासु पराकाष्ठा तक नहीं पहुंचता उसकी यात्रा अनवरत चलती रहती है। दर्शन और विज्ञान सत्य अन्वेषण की इसी यात्रा पर गतिशील हैं। जीव एवं जगत के सूक्ष्म रहस्यों का अनावरण उनकी यात्रा का ध्येय है। दर्शन की यात्रा का केन्द्र बिन्दु चेतन द्रव्य है वहीं विज्ञान भौतिक जगत को केन्द्र में रखकर आगे बढ़ रहा है। ये दोनों धाराएं परस्पर विरोधी नहीं किंतु एक-दूसरे की समपूरक हैं। दर्शन जगत ने चेतन तत्त्व के अन्वेषण के साथ ही सृष्टिविद्या के अनेक तथ्यों का प्रकटीकरण किया है जिनकी आधुनिक विज्ञान के साथ संवादिता है। विज्ञान भी यदि चेतन द्रव्य के अन्वेषण की ओर उन्मुख होता है तो उसकी यह यात्रा और अधिक तेजस्वी हो सकती
. भगवान महावीर ने चेतन और अचेतन दोनों के ज्ञान को अध्यात्मअनुभव में आवश्यक माना है। दशवैकालिक सूत्र में यह तथ्य अभिव्यक्त हुआ
जो जीवे वि न याणाई, अजीवे वि न याणई। जीवाजीवे अयाणंतो, कहं सो नाहिइ संजमं ? (दसवें 4/12)
जीव और अजीव की सम्यक् अवगति के बिना संयम की आराधना नहीं हो सकती - अध्यात्म साधना का यह सूत्र जैन विद्या की वैज्ञानिकता को अभिव्यक्त कर रहा है। भगवान महावीर अध्यात्म के प्रवक्ता थे। उन्होंने चैतन्य के विकास की ऊंचाईयों का स्वयं आरोहण किया था तथा उस दिशा में प्रस्थान करने वालों का मार्गदर्शन भी किया। प्रश्न उभरता है कि चेतना के विकास की दिशा में प्रस्थान करने वालों के लिए अजीव की अवगति की