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________________ आगम और विज्ञान] [ 163 रूप निर्माण की प्रक्रिया जब कोई अनेक रूपों का निर्माण करने के लिए अपनी शक्ति का उपयोग करता है, उस समय आत्मा के प्रदेश शरीर से बाहर निकलते हैं। उस अवस्था में वह नाना रूपों का निर्माण करने वाला वैक्रिय समुद्घात से समवहत होता है। वह वैक्रिय समुद्घात की प्रक्रिया का पहला चरण है। दूसरा चरण है – दण्ड का निर्माण। उसकी लम्बाई संख्येय योजन की होती है। उसकी चौड़ाई और मोटाई शरीर-प्रमाण होती है। वह आत्मा के प्रदेश और कर्मपुद्गलों के योग से निर्मित होता है। तीसरा चरण है - रत्नों के असार पुद्गलों का परिशोधन कर सार पुद्गलों को ग्रहण करना। . चौथे चरण में बैंक्रिय-कर्ता वांछित रूप निर्माण के लिए फिर दूसरी बार वैक्रिय समुद्घात का प्रयोग कर उसका रूप का निर्माण करता है। नाना प्रकार के रूपों का निर्माण करने में अनेक मणियों के सूक्ष्म पुद्गलों का उपयोग किया जाता है। आचार्य महाप्रज्ञ ने इसे वैज्ञानिक उपलब्धियों से तुलना करते हुए लिखा है कि लेसर की किरणों का उपयोग आज वैज्ञानिक जगत में भी प्रचलित है तथा लेसर किरणों के द्वारा अनेक रूप एक साथ प्रतिबिम्बित किए जा सकते हैं। वह भी मणि के सूक्ष्म पुद्गलों का एक प्रयोग माना जा सकता है। . मणियों के सूक्ष्म पुद्गल .. वृत्तिकार ने इस विषय में प्रश्न उपस्थित किया है - मणियों के पुदगल औदारिक (स्थूल) हैं। फिर भी उनका वैक्रिय शरीर के निर्माण में कैसे उपयोग हो सकता है ? वैक्रिय शरीर के निर्माण में वैक्रिय वर्गणा के पुद्गलों का ही ग्रहण होना चाहिए। इस प्रश्न का समाधान उन्होंने काव्य की भाषा में ही किया है। उनका मत है कि मणियों का उल्लेख सार पुद्गलों का प्रतिपादन करने के लिए किया गया है। इसलिए प्रस्तुत सूत्रांश का अर्थ रत्न, व्रज आदि मणि नहीं, किंतु उन मणियों के तुल्य सार पुद्गल हैं। वृत्तिकार ने मतान्तर का उल्लेख किया है। उसका अभिप्राय यह है कि वैक्रिय कर्ता वैक्रिय रूप निर्माण के समय औदारिक वर्गणा के पुद्गलों को ग्रहण करता है। तत् पश्चात् वे वैक्रिय के रूप में परिणत हो जाते हैं। मूल सूत्र-पाठ के अध्ययन से यह स्पष्ट है कि मणियों के सूक्ष्म पुद्गल शरीर-निर्माण के काम में लिए जाते हैं। इसलिए उनका वैक्रिय वर्गणा के रूप में परिणमन होना संभव लगता है।
SR No.002201
Book TitleJain Vidya aur Vigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahaveer Raj Gelada
PublisherJain Vishva Bharati Samsthan
Publication Year2005
Total Pages372
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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