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आगम और विज्ञान]
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• हैं, जिनके भिन्न-भिन्न परिणाम होते हैं। रूप परिवर्तन और नाना रूपों का निर्माण, वैक्रिय लब्धि के द्वारा होता है। वीर्य लब्धि उसकी सहायक है। हम यह बता आए हैं कि इस शक्ति का विकास देवों में जन्मना होता है, क्योंकि उनके शरीर मूलतः वैक्रिय पुद्गलों से निर्मित है। वैक्रिय शरीर की विशेषता है कि उसमें मनुष्य शरीर अर्थात् औदारिक शरीर की भांति हाड़, मांस और मज्जा नहीं होती। वैक्रिय शरीर के पुद्गल, औदारिक शरीर के पुद्गलों से सूक्ष्म होते हैं और घनीभूत होते हैं। अतः देवों के यह विक्रिया स्वभावगत हो जाती है। लेकिन मनुष्य के लिए वैक्रिय शक्ति को प्राप्त करना कठिन है। मनुष्यों को इसके लिए मंत्र, वशीकरण, योग आदि का सहयोग लेना होतो है।
वैक्रिय शक्ति द्वारा निर्मित रूपों की सघन व्याप्ति बताने के लिए सूत्रकार ने दो दृष्टांत दिए हैं कि जैसे कोई युवक युवती का हाथ प्रगाढ़ता से पकड़ता है अथवा गाड़ी के चक्के की नाभि आरों से चारों ओर जकड़ी होती है वैसे ही वैक्रिय शक्ति निर्मित रूप वैक्रिय कर्ता से प्रतिबद्ध रहते हैं और अपने शरीर के प्रतिबद्ध रूपों से पूरे क्षेत्र को भर देते हैं। इस प्रक्रिया में भावितात्मा अनगार वैक्रिय समुद्घात से समवहत होता है तथा नाना रूपों का निर्माण करने मे समर्थ होता है। सामर्थ्य का वर्णन करते हुए कहा है कि वह अभियोजन शक्ति के द्वारा परकाय (दूसरे शरीर) में भी प्रवेश कर व्यापृत या संचालित करने में भी समर्थ होता है। वह बहिर्वर्ती पुद्गलों को ग्रहण कर एक स्त्री रूप निर्माण करने में समर्थ है। वह पताका, ढाल, तलवार आदि किसी रूप में विक्रिया कर सकता है। आचार्य महाप्रज्ञ ने इस संबंध में लिखा है कि, अनगार दो प्रकार के होते हैं -
1. भावितात्मा अनगार 2. संवृतात्मा अनगार
जो संवृतात्मा होता है वो वीतरागता की दिशा में विकास करता है। जो भावितात्मा होता है, उसमें शक्ति के प्रयोग की क्षमता का विकास होता है। वह लब्धि-सम्पन्न हो जाता है। चतुर्दशपूर्वी भी वैक्रिय लब्धि से सम्पन्न होते हैं। वे एक घड़े से हजार घड़ों का निर्माण कर सकते है।
आचार्य महाप्रज्ञ इस संबंध में लिखते हैं कि चतुर्दशपूर्वी को श्रुतज्ञान के द्वारा उत्कारिका भेद की प्रक्रिया ज्ञात होती है। उसके माध्यम से एक पदार्थ के समान अनेक पदार्थों का निर्माण कर सकता है। 'उत्कारिका भेद'