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[ जैन विद्या और विज्ञान
(i) पहले समय दण्डाकार रूप एक आयाम में बनता है। (ii) दूसरे समय कपाट स्वरूप बनता है अर्थात् दो आयामों में आत्म
प्रदेश व्याप्त हो जाते हैं। (iii) तीसरे समय मंथान करता है और तीन आयामों में आत्म प्रदेश
व्याप्त हो जाते हैं। (iv) चौथे समय में आत्म प्रदेश लोक व्यापी हो जाते हैं।
इस गति में समय और स्थानान्तरण का कोई अनुपात नहीं रहता अतः गति निरपेक्ष होती है।
जर्मन विद्वानों ने जैन आगमों में वर्णित 'समय' के दो अर्थ लिए हैं। पहला काल का सूक्ष्मतम अंश, और दूसरे में समय का अर्थ, दुर्लभ अवसर लिया है। इस दृष्टि से केवली समुद्घात्, परमाणु की तीव्रतम गति, अन्तराल गति आदि वर्णनों में जहां एक समय का उल्लेख है उसे दुर्लभ अवसर कहना उचित है।
(3) मुक्त जीव की गति - जब जीव मुक्त होता है तब आत्मा ऊर्ध्व गति से एक समय में ही लोक के अग्र भाग में ही पहुंच जाती है। यहां भी असंख्य योजन तक के स्थानांतरण में गति के लिए एक समय ही कहा गया है अतः यह गति भी आकाश काल निरपेक्ष गति है।
ये तीन दुर्लभ अवसर (Singularity) हैं जहां एक समय (काल की सूक्ष्मतम इकाई) में लोक के दूरतम स्थानों तक गति बताई गई है। गति का संबंध आकाश और काल दोनों से है। अतः इन प्रकरणों के संबंध में काल के स्वरूप को जानना भी उपयोगी रहेगा क्योंकि जैन आगमों में वर्णित 'एक समय' का विशेष अभिप्राय है और इसकी चर्चा इसी पुस्तक में 'काल' शीर्षक के अन्तर्गत की गई है। निष्कर्ष
यहां इतना जानना पर्याप्त है कि उक्त उद्धरणों में जीव और सूक्ष्म पदार्थ के आकाश में समश्रेणी गति में केवल एक समय ही माना गया है, स्थानांतरण चाहे जितना हो। एक आकाश प्रदेश से निकटतम दूसरे आकाश प्रदेश तक जाने में एक समय लगता है वहां 14 रज्जु पर्यंत दूरी में गति करने पर भी एक ही समय लगता है। यह सूक्ष्म जगत की स्थूल जगत से भिन्नता है। जब जीव तथा सूक्ष्म पुद्गल लम्बवत होकर (विग्रह गति) किसी अन्य आयाम में स्थानान्तरित होते हैं तो वहां भी इसी प्रकार ‘एक समय' बढ़ जाता है। जितने घुमाव होंगे उतने ही समय बताए गए हैं। इन्हें दुर्लभ घटना मानना