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आगम और विज्ञान]
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आकाश की इस प्रारम्भिक जानकारी के बाद हम अस्पृश्द् गति के बारे में विचार करेंगे।
अस्पृशद् गति के अध्ययन के अन्तर्गत हम जैन आगमों के तीन प्रचलित प्रकरणों को प्रस्तुत करेंगे।
(1) पुनर्जन्म . (2) केवली समुद्घात
(3) मुक्त जीव की गति
(1) पुनर्जन्म - मृत्यु के बाद जीव की दूसरे जन्म में जाते समय बीच में होने वाले गति अन्तराल गति कहलाती है। इसमें एक समय में ही समश्रेणी में एक बड़ी लम्बी दूरी की यात्रा हो जाती है। यह अस्पृशद् गति दो प्रकार की है -
(1) ऋजु गति (2) वक्र गति
ऋजु गति एक समय की होती है जब मृत जीव का उत्पत्ति स्थान समश्रेणी होता है अर्थात् आकाश के एक ही आयाम में होता है, दूरी चाहे जो हो। इस गति में देश और समय के अनुपात का संबंध नहीं है अतः यह आकाश-काल निरपेक्ष गति है। .. एक ही आयाम अर्थात् सरल रेखा में जब जीव का स्थानांतरण होता है तो उसे ऋजु गति बतलाया है, लेकिन जब आयाम बदलते हैं अर्थात् लम्बवत गति होती है तो गति वक्र (विग्रह) कहलाती है। इस गति में दो, तीन, चार समय भी लग जाते हैं क्योंकि दो और तीन घुमाव आने संभव है। लोक की बनावट इसी प्रकार की है जिसके मध्य में शीर्षवृत्त त्रसनाड़ी है। त्रस नाड़ी से बाहर जीव की गति में एक घुमाव बढ़ जाता है। पुनर्जन्म के समय जीव की गति, परमाणु की तीव्रतम गति के अनुसार होती है। जीव लोक के एक भाग से दूसरे भाग में पहुंच जाता है। यह आकाश संबंधी स्थिति
(2) केवली समुद्घात - जैन तत्व चिंतन में केवली समुद्घात एक विशिष्ट प्रक्रिया है जिसमें आत्मा के प्रदेश, समस्त लोकाकाश. के प्रदेशों में व्याप्त हो जाते हैं। व्याप्ति के समय जब आत्म प्रदेश विस्तार लेते हैं तो यह गति भी आकाश-काल निरपेक्ष होती है जिससे केवल चार समय में आत्मप्रदेश लोक के अन्त तक व्याप्त हो जाते हैं।