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[ जैन विद्या और विज्ञान
एक अन्तरिक्ष यान को पृथ्वी के गुरुत्वाकर्षण से निकलने के लिए होती है। जैन साहित्य में वर्णन है कि देव जब भी ऊर्ध्व लोक से तिर्यक लोक में आते हैं तो किसी उपपात पर्वत पर जाकर विशेष पुद्गल (ऊर्जा) ग्रहण करते हैं उसके बाद ही तिर्यक् लोक में गति करने में सक्षम होते हैं।
आचार्य महाप्रज्ञ ने आधुनिक भौतिक विज्ञान के सापेक्षवाद सिद्धान्त (Theory of Relativity) के संदर्भ में शक्र, चमर और वज्र की सापेक्ष गति के अध्ययन की आवश्यकता बताई है। इस विषय का अध्ययन निम्न क्रम से करेंगे :
» आगमिक धारणा » वैज्ञानिक धारणा
अतः इस संबंध में आगमिक तथ्यों को पहले प्रस्तुत करेंगे। आगमिक धारणा
शक्र-चमर-वज की गति के संबंध में आगमिक चर्चा निम्न प्रकार से
हुई है।
1. शक्र की गति और वज की गति ऊँचे लोक में शीघ्र-शीघ्र और .
त्वरित-त्वरित है तथा अधो लोक में गति मंद-मंद और अल्प-अल्प है। इसे हम निम्न प्रकार से दर्शा सकते हैं। ...
ऊर्ध्व गति > तिरछी गति > अधो गति। 2. चमर की गति नीचे लोक में शीघ्र-शीघ्र और त्वरित-त्वरित है तथा
ऊँचे लोक में अथवा तिरछे लोक में मंद-मंद और अल्प-अल्प है। इसे हम निम्न प्रकार से दर्शा सकते हैं।
___ अधो गति > तिरछी गति > ऊर्ध्व गति। इसका अभिप्राय यह हुआ कि जो जीव या वस्तु जिस क्षेत्र की है, वहां उसकी गति अधिक है तथा लोक (क्षेत्र) परिवर्तन से गति में कमी आती है। इनकी गतियों की परस्पर में तुलना करने हेतु सारणी दी गई है जो निम्न प्रकार है।
लोक
शक्र
वज
चमर
ऊर्ध्व
24
12
तिर्यक्
18
10
अधो
12