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[ जैन विद्या और विज्ञान
भाव की दृष्टि से अस्तित्व और पर द्रव्य की दृष्टि से नास्तित्व है। अध्यात्म की दृष्टि यहाँ कुछ गौण हो गई है। 'पर' से नास्तित्व क्यों माना जाए ? सापेक्षता की दृष्टि से विचार करें तो अस्तित्व और नास्तित्व दोनों स्वगत होते हैं, वस्तुगत होते हैं। 'पर द्रव्य' की अपेक्षा से नास्तित्व है, यह आवश्यक नहीं।"
अतः अस्तित्व व नास्तित्व स्वगत है, परगत नहीं। 'अस्ति-नास्ति' भाव का यह विश्लेषण अत्यन्त नया है और विज्ञान सम्मत है। (iii) वैज्ञानिक पक्ष
- 'महाप्रज्ञ दर्शन' पुस्तक में इस संबंधी विज्ञान का एक उदाहरण दिया गया है। पुस्तक के लेखक डॉ. दयानन्द भार्गव ने लिखा है कि इधर विज्ञान की खोजों ने सापेक्षता को कुछ नए आयाम दिए हैं जिनकी संक्षिप्त चर्चा करना अप्रासंगिक नही होगा। पांच फट लम्बा व्यक्ति चार फट लम्बे व्यक्ति की अपेक्षा लम्बा है और छह फुट लम्बे व्यक्ति की अपेक्षा छोटा है - यह बात बहुत स्पष्ट है। इस उदाहरण में एक व्यक्ति की लम्बाई को दूसरे व्यक्ति की लम्बाई से तुलना की गई हैं अतः इसमें नास्ति भाव स्वगत प्रकट नही हुआ है किन्तु परगत प्रकट हुआ है। आइंस्टीन ने जिस सापेक्षता का वर्णन किया है वह सापेक्षता यह बिल्कुल नही है। आइंस्टीन का कहना है कि पांच फुट लम्बा व्यक्ति कभी सवा पांच फुट का हो जाता है और कभी पौने पांच फुट का ही रह जाता है। इतना ही नहीं वह व्यक्ति एक ही अवधि मे कभी पचास वर्ष का हो जाता है और कभी दस वर्ष का रह जाता है। इसमें नास्ति भाव स्वगत प्रकट हुआ है परगत नही। यह अस्ति और नास्ति का उदाहरण दोनों स्थितियों में स्वगत है , परगत नही। उपर्युक्त उदाहरण की पुष्टि में आइंस्टीन ने तीन सिद्धान्त रखे - .
1. कोई भी पदार्थ जैसे जैसे अपनी गति तेज करता है, उसका माप
छोटा होता चला जाता है - यहां तक की यदि वह प्रकाश की प्रति सेकेण्ड 1,86,000 मील वाली गति से चले तो उसका माप
शून्य हो जाएगा , और वह दिखना बंद हो जाता है। 2. जैसे-जैसे पदार्थ की गति तेज होती है उसका द्रव्यमान बढ़ता
जाता है यहां तक की प्रकाश की गति पर उसका द्रव्यमान
अनन्त हो जाता है। 3. जैसे-जैसे गति तीव्र होती है, समय की गति मंद हो जाती है
और प्रकाश की गति पर समय की गति सर्वथा रुक जाती है।