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________________ द्रव्य मीमांसा और दर्शन ] स्यात् का अभिप्राय आचार्य महाप्रज्ञ ने "स्यात्" शब्द को नए रूप में परिभाषित किया हैस्याद्वाद का उद्गम अनेकान्त वस्तु है । स्याद्वाद अनेकान्त दृष्टि को वाणी द्वारा व्यक्त करने की पद्धति है । दृष्टि की अपेक्षा, वाणी द्वारा कथन करने की सीमाएं हो जाती हैं। जानना तो अधिक संभव है मगर उतना उसी रूप में कहना संभव नहीं । जिस वस्तु के लिए कथन करना होता है। उसमें भी विभिन्न गुण होते हैं। स्थूल वस्तु का कथन करना कठिन नहीं है क्योंकि वह इन्द्रिय प्रत्यक्ष है लेकिन सूक्ष्म के बारे में कथन करना कठिन होता है क्योंकि उसका व्यवहार, पूर्ण रूप से ज्ञात नहीं होता। इसी भेद के कारण जैन दर्शन में कथन करते समय 'स्यात्' शब्द के प्रयोग करने की बात कही गई। स्यात् शब्द इस बात का सूचक है कि प्रतिपाद्य भाव धर्म को मुख्यता देकर और शेष धर्मों की उपेक्षा की गई है, तभी वस्तु वाच्य होती है। इसमें शेष धर्मों की उपेक्षा करने की जो बात कही गई है, वह महत्त्वपूर्ण है। इससे वस्तु के मुख्य गुण के कथन में विधायकता और निश्चितता आ जाती हैं । . - स्वचतुष्टय परचतुष्टय स्यादवाद की दृष्टि से यह कहा जाता रहा है कि जो वस्तु सत् है, वह असत् भी है किन्तु जिस रूप में सत् है उसी रूप में असत् नहीं है। जैनाचार्यों का मानना रहा कि स्वरूपं की दृष्टि में सत् है और पररूप की दृष्टि में असत् । जैसे घड़ा, घड़े के रूप में सत् है और द्रव्य की दृष्टि से यह उसका अस्ति भाव कहलाता है। घड़े का पररूप कोई अन्य पदार्थ हो सकता है जैसे पट, तब यह कहा जाता रहा है कि घड़े में पट का अभाव है, असत् भाव है, नास्ति भाव है । इस प्रकार द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव की चार दृष्टियों अर्थात् (स्वचतुष्टय) की अपेक्षा से घड़ा है किन्तु वह परचतुष्टय की अपेक्षा से नहीं है। इसी को एक अपेक्षा से होना 'स्यात् अस्ति' और दूसरी अपेक्षा से न होना 'स्यात् नास्ति' कहा जाता रहा है। [139 नई दृष्टि इस संबंध में आचार्य महाप्रज्ञ की दृष्टि एक नई दिशा देती है । वे लिखते हैं "प्रत्येक व्यक्ति "पर" या परिस्थति पर सारा दोषारोपण कर छुट्टी पा लेता है । अनेकान्त की व्यवस्था करने वाले आचार्यों ने भी ऐसी ही समस्या हमारे सामने उत्पन्न की है। उन्होंने अस्तित्व और नास्तित्व दोनों को मान्यता दी उन्होंने कहा प्रत्येक तत्त्व का अपने द्रव्य, क्षेत्र, काल और -
SR No.002201
Book TitleJain Vidya aur Vigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahaveer Raj Gelada
PublisherJain Vishva Bharati Samsthan
Publication Year2005
Total Pages372
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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