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[ जैन विद्या और विज्ञान
के आचार्यों ने एक मत सुझाया। उन्होंने कहा प्रत्येक बुद्धि विकल्प के साथ हम अपेक्षा को जोड़े और प्रत्येक वचन विकल्प के साथ हम 'स्यात्' का प्रयोग करें । 'स्यात्' शब्द से युक्त वचन - विकल्प स्यादवाद कहलाता है। हम सापेक्षवाद और स्यादवाद के सहारे अनेकान्त को समझ सकते हैं और अनेकान्त के सहारे सत्य तक पहुँच सकते हैं।
(ii) दार्शनिक पक्ष
जैन दर्शन में वस्तु संबंधी ज्ञान को बुद्धिगम्य बनाने के लिए अनेक वर्गीकृत अपेक्षाएं प्रस्तुत की । अपेक्षा के बिना वस्तु का विवेचन नहीं किया जा सकता । वस्तु-भेद, आश्रय-भेद, काल-भेद और अवस्था-भेद के आधार से द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव की चतुर्भगी का अनेक स्थलों पर उपयोग हुआ है। उपर्युक्त चिंतन में गुण, गुणी, आत्मा के असंख्य प्रदेश, आकाश के प्रदेश आदि सभी को ध्यान में रख कर चार दृष्टियां बनाई है। अपेक्षा भेद समझने पर विरोध नहीं रहता । इसे हम एक उदाहरण से समझ सकते हैं। जैसे कथन शैली से आत्मा सान्त भी है और अनन्त भी । धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, आकाश, काल और पुदगल की भी चतुर्भगी बनती है। इस पद्धति के आधार पर दार्शनिक युग में स्यादवाद का रूप चतुष्टय बना है जो निम्न प्रकार है।
1. वस्तु स्यात् नित्य है, स्यात् अनित्य है ।
2. वस्तु स्यात् सामान्य है, स्यात् विशेष है ।
3. वस्तु स्यात् सत् है, स्यात् असत् है।
4. वस्तु स्यात् वक्तव्य है, स्यात् अवक्तव्य 1
उक्त चर्चा में कहीं भी 'स्यात्' शब्द संदेह के अर्थ में प्रयुक्त नहीं हुआ है। शंकराचार्य की युक्ति के अनुसार
" स्यादवाद की पद्धति से पदार्थों में निश्चय नहीं हो सकता। वे वैसे ही हैं या वैसे नहीं हैं, यह निश्चय हुए बिना उनकी प्रामाणिकता चली जाती है।" शंकराचार्य की आलोचना पर जैन विद्वानों और आचार्यों ने स्यादवाद की गहरी मीमांसा की है। डा. राधाकृष्णनन् ने भी अपने जीवन के अंतिम वर्षो में यह स्वीकार किया था कि जैनों का साहित्य अंग्रेजी भाषा में पर्याप्त रूप से न मिलने के कारण, जैन साहित्य भी अन्य दर्शनों के माध्यम से पढ़ा गया इसी कारण स्याद्वाद को संशयवाद कहने में आधुनिक विद्धानों से भूल हुई है। पूर्व में भी जैन ग्रन्थों को न पढ़ने से ही कई अजैन विद्वान स्यादवाद के अर्थ को ठीक नहीं समझ सके हैं।
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