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________________ 136] [ जैन विद्या और विज्ञान मीमांसा में तथा आचार्य सिद्धसेन दिवाकर ने "न्यायावतर" में स्यादवाद का अभूतपूर्व ढंग से प्रतिपादन किया है। हम अनेकान्त का अध्ययन इसके तीन पक्षो के संदर्भ में करेंगे। > सैद्धांतिक पक्ष > दार्शनिक पक्ष > वैज्ञानिक पक्ष (i) सैद्धान्तिक पक्ष जैन आगम भगवती सूत्र में द्रव्य को परिभाषित करते हुए के द्वारा समझाया गया है। (1) द्रव्य रूप (2) पर्याय रूप (1) द्रव्यार्थिक नय (2) पर्यायार्थिक नय अथवा • दृष्टियों नय का अभिप्राय वस्तु के एक धर्म का ज्ञान है और यह एक धर्म का वाचक शब्द है । द्रव्यार्थिक और पर्यायार्थिक नय परस्पर में सापेक्ष है । द्रव्य के प्राधान्यकाल में पर्याय की प्रधानता नहीं होती और यही बात पर्यायार्थिक नय के लिए है। इस सापेक्षता को सिद्धसेन ने अनेकान्त कहा है अतः सत् का अस्तित्व द्रव्य और पर्याय दोनों के बिना संभव नहीं है। आचार्य उमास्वाति - सत् की तत्वार्थ सूत्र में निम्न परिभाषा दी है 'उत्पाद, व्यय, ध्रौव्य युक्त सत्' उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य अर्थात उत्पन्न होना, नष्ट होना तथा ध्रुव रहना तीनों अवस्थाएं समन्वित हैं । यह त्रिपदी, अनेकान्त का आधार है। भगवान महावीर और उनके प्रथम गणधर गौतम के बीच का संवाद उल्लेखनीय है: गौतम : भगवन्! आत्मा शाश्वत है या अशाश्वत ? महावीर : आत्मा शाश्वत भी है और अशाश्वत भी । आत्मा, द्रव्य के रूप में शाश्वत है तथा गुणों की पर्याय परिवर्तन के कारण अशाश्वत है। पुरानी पर्याय नष्ट होती है तो नई पर्याय उत्पन्न होती है। इस उदाहरण से आत्मा की शाश्वतता और अशाश्वतता अपेक्षा विशेष से प्रतिपादित है । आगम सहित्य में लोक को भी शाश्वत तथा अशाश्वत कहा है। इसी प्रकार स्कन्ध परिव्राजक के प्रश्न के समाधान में महावीर ने लोक को सान्त और अनन्त दोनों कहा है । द्रव्य और क्षेत्र की अपेक्षा लोक को सान्त तथा काल एवं भाव की अपेक्षा
SR No.002201
Book TitleJain Vidya aur Vigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahaveer Raj Gelada
PublisherJain Vishva Bharati Samsthan
Publication Year2005
Total Pages372
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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