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[जैन विद्या और विज्ञान
होता है लेकिन शिक्षण कार्य को और अधिक भरपूर व फलदायक बनाने के लिए अध्यापन योजना में उनका सम्मिलित करना आवश्यक या वांछनीय समझा गया ------ अतः जैन आचार्यों को अध्यापन कला में श्रेष्ठ माना जाना चाहिए।"
"It is of special interest that the various methodologies applied by Jain Acharayas in explaining the different attributes of substance, sometimes have nothing to do with the text to be explained but the inclusion of which in the teaching programme seemed essential or desirable to make the instruction richer and more rewarding for teaching the pupils, ... Jain Acharayas should therefore b as the best teachers"
जर्मन विद्वान हरमन जकोबी ने माना है कि अनेकान्त ने सत्य के अर्थ को पाने के लिए सारे द्वार सभी स्तरों पर खोल दिए हैं। अनेकान्त सिद्धान्त ने आत्मा और शरीर के सापेक्ष संबंधों को समझने में महत्वपूर्ण योगदान किया है। जैनों की मान्यता है कि वस्तु शाश्वत है लेकिन पर्याय परिवर्तनशील हैं। आत्मा शाश्वत है और शरीर परिवर्तनशील हैं। सापेक्षता
आइंस्टीन के सापेक्षता सिद्धान्त के बाद सापेक्षता की चर्चा अत्यन्त व्यावहारिक हो गई है। यद्यपि सापेक्षता पर विचार भारतीय दर्शनों में हुआ है किन्तु जैन परम्परा में सर्वाधिक हुआ प्रतीत होता है। हम इसके दार्शनिक और वैज्ञानिक पक्ष पर तलनात्मक विचार करेंगे। वर्तमान में जैनाचार्य महाप्रज्ञ का साहित्य अनेकांतिक दष्टि से ओत-प्रोत हैं तथा आइंस्टीन के सापेक्षवाद से तुलना कर, स्याद्वाद सप्तभंगी आदि सहयोगी सिद्धान्तों को उन्होंने विकसित किया है। इसके कुछ उद्धरण पाठकों के लिए प्रस्तुत हैं।
आचार्य महाप्रज्ञ ने अपनी पुस्तक जैन दर्शन मनन और मीमांसा में कहा है कि जैन दर्शन में अनेकान्त, चिन्तन की शैली के रूप में प्रसिद्ध हैं तथा स्याद्वाद प्रतिपादन करने का साधन है। जानना ज्ञान का काम है, तो बोलना वाणी का। ज्ञान से अनन्त जाना जा सकता है लेकिन वाणी से अनन्त कहा नहीं जा सकता। अतः ज्ञान की शक्ति अपरिमित हैं और वाणी की शक्ति परिमित। अनेकान्त का दूसरा नाम - सापेक्षवाद
जैन आगमों के अनुसार अनेकान्त का विवेचन करते हुए आचार्य महाप्रज्ञ ने लिखा है कि सत्य की उपलब्धि के दो उपाय हैं - अतीन्द्रिय