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द्रव्य मीमांसा और दर्शन ]
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अनेकान्त का वैज्ञानिक पक्ष
अनेकान्त
- जैन विद्या के अध्येता और अनुसंधानकर्ताओं के लिए अनेकान्त शब्द नया नहीं है। भगवान महावीर के निर्वाण के बाद उनके उपदेश, ज्ञान और वाणी को कंठस्थ परम्परा से आचार्य, उपाध्याय अपने शिष्यों को अध्ययन कराते रहे। समय के प्रभाव से स्मृति दुर्बलता के कारण आगमों की सुविस्तृत धारा उत्तरोत्तर क्षीण होने लगी। वीर निर्वाण के एक हजार वर्ष पश्चात् देवर्द्धिगणी क्षमाक्षमण ने उपलब्ध आगम साहित्य को लिपिबद्ध कर उस निधि को नष्ट होने से उबारा । आगमों के लिपिकरण के पश्चात् उनके पठनपाठन का व्यवस्थित क्रम चलने लगा। आचार्यों ने अपनी असाधारण विद्वता का उपयोग करते हुए जैन विद्या के उच्च स्तरीय अध्ययनअध्यापन के लिए अनेक शिक्षण शैलियों को प्रतिष्ठित किया। उनमें, अनेकान्त शैली सर्वाधिक प्रचलित हुई। वस्तु अनन्त धर्मात्मक __ प्रत्येक वस्तु अनन्त धर्मात्मक होती है। वस्तु के अनेक विरोधी धर्मों को सापेक्षता से समझने की ज्ञानमय तकनीक को अनेकान्त दृष्टि कही गई थी लेकिन कालान्तर में यह जैन दर्शन के सिद्धान्त के रूप में विख्यात हो गई। जैन दर्शन अनेकान्ती दर्शन कहलाने लगा। अनेकांत सिद्धान्त को विकसित करने के लिए स्याद्वाद नयवाद, सप्तमंगी, अनुयोगद्वार, त्रिभंगी, चुर्तभंगी, निक्षेप आदि अन्य सहयोगी सिद्धान्त प्रचलित हुए। सभी सिद्धान्तों ने अपनी ऊँचाइयां पाई और जैन दर्शन की विकास यात्रा में प्रभावी देन दी हैं। शैक्षणिक विधा __द्रव्य अनन्त धर्मात्मक होता है। एक द्रव्य के अनन्त धर्मों को समझने और समझाने के लिए जो विविध विधाएं जैन आचार्यों ने प्रस्तावित की उसके संबंध में जर्मन विद्वानों ने महत्वपूर्ण टिप्पणी की है - "एक विशेष रुचि की बात यह है कि जैन आचार्यों द्वारा वस्तु के विभिन्न गुणों की व्याख्या करते । समय जो विविध प्रक्रियाएं अपनाई उनका कई बार विषय से कोई सम्बन्ध नहीं